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सूत्रकृतांग अप्पेगे खुधियं भिक्खं सुणी डंसति लूसए | तत्थ मंदा विसीयंति तेउपुट्ठा व पाणिणो ।। अप्पेगे वइ जुंजंति नगिणा पिंडोलगाहमा । मुंडा कंडूविणटुंगा उजला असमाहिता ।। पुट्ठो य दंसमसएहिं तणफासमचाइया । न मे दिठे परे लोए जइ परं मरणं सिया ॥ अप्पेगे पलियंते सिं चारो चोरो त्ति सुव्वयं । बंधंति भिक्खुयं बाला कसायवयणेहि य ।। तत्थ दंडेण संबीते मुट्ठिणा अदु फलेण वा ।
नातीणं सरती बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥ -भिक्षाचर्या में अकुशल, परीषहों से अछूना अभिनव प्रबजित शिष्य अपने आपको तभीतक शूर समझता है जब तक कि वह संयम का सेवन नहीं करता। जब हेमंत ऋतु में भयंकर शीत सारे अंग को कँपाती है, तब मंद शिष्य राज्यभ्रष्ट क्षत्रियों की भाँति विषाद को प्राप्त होते हैं। ग्रीष्म ऋतु के भीषण अभिताप से आक्रांत होने पर वे विमनस्क और प्यास से व्याकुल हो जाते हैं। उस समय थोड़े जल में तड़पती हुई मछली की भाँति वे विषाद को प्राप्त होते हैं . यदि कोई कुत्ता आदि कर प्राणी बुभुक्षित साधु को काटने लगे तो अग्नि से जले हुए प्राणी की भाँति मन्द शिष्य विषाद को प्राप्त होते हैं। कोई लोंग इन के साधुओं को देखकर प्रायः तिरस्कारयुक्त वचन कहते हैं- 'ये नंगे हैं, परपिड के अभिलाषी हैं, मुंडित हैं, खुजली से इनका शरीर गल गया है, इनके पसीने से बदबू आती है और ये कितने बीभत्स हैं !" डाँस-मच्छर से कष्ट पाता हुआ और तृण-स्पर्श को सहन करने में असमर्थ साधु के मन में कदाचित् यह विचार आ सकता है कि परलोक तो मैंने देखा नहीं, इसलिये इस यातना से छुटकारा पाने के लिये मरण ही श्रेयस्कर है । कुछ अज्ञानी पुरुष ( अनार्यदेशवासी) भ्रमण करते हुए भिक्षुक को देखकर सोचते हैं"यह गुप्तचर है, यह चोर है," और फिर उसे बाँध देते हैं, और