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प्राकृत साहित्य का इतिहास उपस्थित होकर साधुओं को भिक्षा ग्रहण करने का निषेध है। मार्ग में यदि स्थाणु, कंटक, कीचड़ आदि पड़ते हों तो भिक्षा के लिये गमन न करे । बहुत अस्थिवाले मांस और बहुत कांटेवाली मछली के भक्षण करने के संबंध में चर्चा की गई है। शय्या अध्ययन में वसति के गुण-दोषों और गृहस्थ के साथ रहने में लगनेवाले दोषों का विवेचन है । ईर्या अध्ययन में मुनि के विहारसंबंधी नियमों का प्ररूपण है। भिक्षु-भिक्षुणी को देश की सीमा पर रहनेवाले अकालचारी और अकालभक्षी दस्यु, म्लेच्छ और अनार्यों आदि के देशों में विहार करने का निषेध है। जहाँ कोई राजा न हो, गणराजा ही सब कुछ हो, युवराज राज्य का संचालन करता हो, दो राजाओं का राज्य हो, परस्पर विरोधी राज्य हों, वहाँ गमन करने का निषेध है। नाव पर बैठकर नदी आदि पार करने के संबंध में नियम बताये हैं। नाव में यात्रा करते समय यदि यात्री कहे कि इस साधु से नाव भारी हो गई है, इसलिये इसे पकड़ कर पानी में डाल दो तो यह सुनकर साधु अपने चीवर को अच्छी तरह बाँधकर अपने सिर पर लपेट ले । उनसे कहे कि आप लोग मुझे इस तरह से न फेंकें, मैं स्वयं पानी में उतर जाऊँगा। यदि वे फिर भी . पानी में डाल ही दें तो रोष न करे । जल को तैर कर पार करने में असमर्थ हो तो उपधि का त्याग कर कायोत्सर्ग करे, अन्यथा किनारे पर पहुँच कर गीले शरीर से बैठा रहे । जल यदि जंघा से पार किया जा सकता हो तो जल को आलोडन करता हुआ न जाये | एक पैर को जल में रख और दूसरे को ऊपर उठाकर नदी आदि पार करे।
इन जैन कैनन्स, पृष्ठ २३९-२४० । मजिझमनिकाय (१,४४८) में इसे संखति कहा है।
१. अवारिय जातक (३७६) पृष्ठ २३० इत्यादि में भी इस तरह के उल्लेख पाये जाते हैं।