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यन्त्रवत् चलते आये और अब यह देरी तो सा कैसे हो?
"कौन है? संगीतसेवा के लिए कौन नियुक्त था?" महाराज ने पूछा। "कोयतूर के आनन्दाळवार।" "वे कहाँ गये?"
"सुबह से यहीं थे। ठीक समय पर ऐसा हो गया।" आगमशास्त्री हाथ मलने लगे।
पट्टमहादेवी ने अपने पीछे खड़े कुंवर बिट्टिगा को संकेत से पास बुलाया।"छोटे दण्डनायक तानपूरा बजावें । श्रुति शुद्ध रहे,"आदेश दिया। वह तानपूरे के कान उमेठकर श्रुति बिठाकर बजाने लगा।
__ पट्टमहादेवी शान्तलदेवी ने मधुर गाय मार- दिनगि जनताले पानमौन भाव से इस गान-माधुर्य का एकाग्रचित्त होकर आस्वादन किया। लोगों को पहले मालूम नहीं हुआ कि गानेवाली कौन है। फिर भी उस गान-माधुर्य ने उन्हें दिव्यलोक में पहुंचा दिया था।
पट्टमहादेवी ने जो गीत गाया वह आशु- कवित्व था, उसका सारांश यह था : भिन्न-भिन्न मतावलम्बी तुम्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं और देखते हैं, परन्तु तुम सर्वव्यापी हो और इन भिन्न-भिन्न रूपों में भक्तों को सन्तुष्ट करते हो। हे प्रभु! सबकी रक्षा करो।
पता नहीं, पट्टमहादेवी को क्या सूझा, "दण्डनायक जी मुरज बजाएँगे?" उन्होंने पूछा।
"बजाऊँगा। पर क्यों ?"
"छताऊँगी। दो हैं न? एक यहाँ दो। मैं बजाऊँगी। तुम अनुसरण करते जाना। बाद में ठीक बजा लेंगे। नृत्य-सेवा के लिए कोई दूसरा नहीं है, ऐसा मालूम होता है। सन्निधान अनुमति प्रदान करें। इस सेवा का समर्पण न हो तो पूजा परिपूर्ण नहीं होगी। पीछे चलकर लोग यह न कहें कि इतने बड़े पहाराज द्वारा सम्पन्न इस प्रतिष्ठामहोत्सव में नृत्य-सेवा नहीं थी।"
बिट्टिदेव ने सम्मति प्रदान की।
पट्टमहादेवी ने रानी बम्मलदेवी को बुलाया और, "मृत्य-सेवा कर लौटने तक महाराज की बगल में उस स्थान पर जाकर बैठिए जहाँ मैं बैठी थी," यह कहकर नत्य-सेवा के लिए नियत स्थान पर, जो प्रतिष्ठापित मूर्ति के सामने ही सजाकर तैयार किया गया था, मुरज लेकर खड़ी हो गयीं। स्वयं मुरज बजाती हुई, नृत्यानुरूप गाही हुई, बड़े हृष्ट पन से जगन्योहिनी ताण्डवेश्वरी की तरह लास्यपूर्ण-नृत्य करने लगी। उनकी मन्दगत्ति के अनुसार कुँवर बिट्टियण्णा ने मुरज बजाया। अपने पादों से गति सूचक ताल भी देने लगा। दोनों एक अलग ही कल्पना-लोक में पहुँच गये थे। नृत्य
34 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार