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अभिषेक, धान्याधिवास आदि सारी क्रियाएँ चलने लगी थीं। मन्दिर का कल्याण मण्डप अधिकतर तिलकधारियों से ही भरा हुआ था । अन्य लोग भी नहीं थे, सो बात नहीं, परन्तु इन तिलकधारियों का अग्रिम स्थान था. यह कहा जा सकता हैं। मन्दिर के बाहरी प्रांगण की छत के नीचे का भाग खचाखच भर गया था।
प्रतिष्ठा महोत्सव की सम्पन्न करने के लिए सम्पूर्ण राज- मर्यादा के साथ राजदम्पती पैदल आये। उनके लिए तथा राजपरिवार के अन्य लोगों के लिए पहले से आसन तैयार थे। वे सब उन आसनों पर बैठ गये। आगमशास्त्रियों में शास्त्रोक्त रीति से सभी कार्यों का समापन कर मूर्ति को भरपीठ पर प्रतिष्ठि फार्स कर
मात्र बचाये रखा था।
समस्त भक्तजनों की स्वीकृति की प्रतीक्षा करते हुए आगमशास्त्रियों के नेता ने पूछा, "मुहूर्त सन्निहित है, प्राण प्रतिष्ठा के लिए स्वीकृति देवें ।"
स्थपति, उनका बेटा और तीन चार शिल्पी भी मंगलस्नान से परिशुद्ध होकर विग्रह को ठीक ढंग से खड़ा करके उसे वैसे ही थामे खड़े रहे।
एक कण्ठ से सबने स्वीकृति दी। वेदोक्त रीति से चेन्नकेशव की शिलामूर्ति में राजदम्पती के हाथों प्राण प्रतिष्ठा करायी गयी। स्थायी रूप रखने के लिए मूर्ति को शिल्पियों ने मजबूत पीठ पर खड़ा किया। मांगलिक वाद्य बज उठे।
आगमशास्त्रियों ने कहा, " आचार्य श्री के आदेशानुसार चेन्नकेशन की इस पूर्ति की स्थापना एवं निश्चित अभिजिन्मुहूर्त में विधिपूर्वक प्राणप्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न हुआ। पोय्सल महाराज के हाल के विजयोत्सव, खासकर तलकाडु जीतकर गंगावाड़ी की फिर से प्राप्त कर लेने के इस शुभ अवसर के स्मारक के रूप में भगवान् को विजयनारायण के नाम से अभिहित करेंगे। इस अभिधान से विभूषित करने के पूर्व प्रतिष्ठापित भगवान् को पंचामृत से, पंचनदियों के जल से अभिषेचन पूर्वक षोडशोपचार पूजा करने के लिए अनुमति प्रदान करें। "
लोगों ने हर्षोद्गार के साथ अनुमति प्रदान की। घण्टे नगाड़े आदि बज उठे । आगमशास्त्रियों ने उक्त रीति से पूजा कार्य शुरू किया। क्षीर, दधि, मधु, घृत, फल, शर्करायुक्त महाभिषेचन हुआ। कावेरी, कपिला, तुंगभद्रा एवं वरदा नदियों के जल से भगवान् का मंगलस्नान भी कराया गया। बाद में गन्ध, अक्षत, यज्ञोपवीत, हरिंद्रा, कुंकुम, सिन्दूर आदि से सजाकर पुष्पार्चन, सहस्रनामार्चन, धूप दीप नैवेद्य और आरती --- सब यथावत् सम्पन्न किये गये। अब अन्त में सैद्धान्तिक सेवाएँ होनी चाहिए। इनके लिए कौन क्या सेवा करे यह सब पहले से ही निश्चित था। चारों वेदों का पठन, मन्त्रपुष्प के बाद एक-एक कर सभी कार्य सम्पन्न हुए। अब संगीतसेवा की बारी थी। प्रधान आगमशास्त्री ने संगीतसेवा की घोषणा की। वहाँ केवल वाद्य वृन्द रखा था । कोई गायक नहीं था। राजदम्पतियों ने इधर-उधर देखा। अब तक सभी कार्यक्रम
पट्टमहादेवी शान्तला भाग चार :: 33