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नियमसार-प्राभूतम्
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निर्वाणमेव । इतिशब्दोऽत्र प्रकारार्थे । एवं प्रकारेण द्विविधं जिनेंद्रदेवस्य शासने समाख्यातं वर्णितम् । कः ? गणधरादिदेवः - इत्यर्थः ।
अयं मार्गः षष्ठगुणस्थानादारभ्य कथन्धिद् देशसंयमबलेन फञ्चमगुणस्थानावप्यारभ्य वा द्वादशमगुणस्थानान्त्यपर्यन्तम् अथवा चतुर्दशमगुणस्थानान्त्य समयपर्यन्तमेव । तत उपरि मोक्ष इति ज्ञातव्यः ।
तात्पर्यमिदम्--(स्वात्मोपलब्धिस्वरूपो मोक्षः 1 तत्प्राप्स्यर्थं नित्यनिरञ्जन - निर्विकारनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेद रत्नत्रयम्, तत्साधनभूतमष्टाङ्गसम्यग्दर्शनमष्टविधसम्यग्ज्ञानं त्रयोदशविधसम्यक् चारित्रमिति समुदायरूपेण भेदरत्नत्रयं तदुभयमपि मार्ग इति ज्ञात्वा शक्त्यनुसारेण तदुपरि गन्तव्यम् । किञ्च
उपाय को करके जो प्राप्त किया जाता है, वहीं उस मार्ग का फल है, वह निर्वाणमोक्ष ही है | गाथा में जो 'इति' शब्द है, वह प्रकार अर्थ को सूचित करता है । जिनेंद्रदेव के शासन में गणधरदेव आदि ने मार्ग और उसका फल ये दो प्रकार ही कहे हैं ।
यह मार्ग छठे गुणस्थान से शुरू होकर बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यंत रहता है । अथवा कथंचित् देशसंयम के बल से पंचमगुणस्थान से भी प्रारंभ होकर बारहवें तक रहता है। अथवा चौदहवे गुणस्थान के अन्तिम समय पर्यंत भी यह रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग माना गया है । उसके ऊपर तो मोक्ष ही है जो कि उस मार्ग का फल है, ऐसा समझना ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा की उपलब्धिस्वरूप मोक्ष है । नित्य निरंजन निर्विकार निज शुद्ध आत्मा का सम्यक् श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में अनुष्ठान रूप जो अभेद रत्नत्रय है, वही उस मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है । पुनः अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टविध सम्यग्ज्ञान और तेरह प्रकार का चारित्र, ये तीनों समुदाय रूप से भेद रत्नत्रय हैं । ये अभेद रत्नत्रय के लिए साधन हैं । ये दोनों भेद - अभेद रत्नत्रय भी मोक्ष मार्ग हैं, ऐसा समझकर शक्ति के अनुसार इन पर चलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मोक्ष ही उपादेय है, उसके लिए
१. इसका विस्तार चौथो गाथा को टोका में किया गया है ।
२. श्लोकवातिकालं कार
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