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जैन पूजान्जलि पुण्यभाव से ही हित होगा जिनकी है मान्यता सदा ।
वे ससार भाव में रत रह मुक्त न होंगे अरे कदा । । अष्ट द्रव्य का अर्थ चढाऊँ अष्टकर्म का हो सहार । निज अनर्घ पद पाऊँभगवन् सादि अनत परमसुखकार ।।अजर ।।९।। ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने अनर्षपद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मनवच काया सहित प्रणाम । अर्ध चन्द्र सम सिद्ध शिला पर आप विराजे आठो याम ।।१।। ज्ञानावरण दर्शनावरणी, मोहनीय अन्तराय मिटा । चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहन्त रूप प्रगटा ।।२।। वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म का नाश किया ।। चऊ अघातिया नाश किये तो स्वय स्वरूप प्रकाश किया ।।३।। अष्टकर्म पर विजय प्राप्त कर अष्ट स्वगुण तुमने पाये । जन्म मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये।।४।। निज स्वभाव मे लीन विमल चैतन्य स्वरुप अरूपी हो । पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रूपी हो।।५।। वीतराग हो सर्व हितैषी राग द्वेष का नाम नहीं । चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं।।६।। स्वय सिद्ध हो स्वय बुद्ध हो स्वय श्रेष्ठ समकित आगार । गुण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनत गुण के भडार ॥७॥ तुम अनन्त बल के हो धारी ज्ञान अनन्तानन्त अपार । बाधा रहित सूक्ष्म हो भगवन् अगुरुलघु अवगाह उदार ।।८।। सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझ मे प्रभुवर शक्ति नहीं । चलू तुम्हारा पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं ॥९॥ देव तुम्हारी पूजन करके हृदय कमल मुस्काया है। भक्ति भाव उर मे जागा है मेरा मन हर्षाया है ॥१०॥ तुम गुण का चिन्तवन करे जो स्वयं सिद्ध बन जाता है। हो निजात्म में लीन दुखों से छुटकारा पा जाता है।।११।।