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जैन पूनाजलि पुण्य से संवर अगर होता तनिक भी ।
तो भ्रमण का कष्ट फिर मिलता न भव का ।। मुनि अथवा गृहस्थ कोई भी मोक्ष मार्ग है कभी नहीं । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित ही मोक्ष मार्ग है सही-सही ।।१३।। मुनि अथवा गृहस्थ के लिंगों मे जो ममता करता है । मोक्ष मार्ग तो बहुत दूर भव अटवी मे ही भ्रमता है।।१४।। प्रतिक्रमण प्रतिसरण आदि आठोप्रकार के हैं विष कुम्भ । इनसे जो विपरीत वही हे मोक्षमार्ग के अमृत कुम्भ।।१५।। पुण्य भाव की भी तो इच्छा ज्ञानी कभी नहीं करता । परभावो से अरति सदा है निज का ही कर्ता धर्ता॥१६॥ कोईकर्म किसी का भी नहीं सुख-दुख का निर्माता है स्वय समर्थ । जीव स्वय ही अपने सुख-दुख का निर्माता स्वय समर्थ ।।१७।। क्रोध, मान, माया, लोभादिक नहीं जीव के किचित पात्र । रुप, गध, रस, स्पर्श शब्द भी नहीं जीव के किंचित मात्र॥१८॥ देह सहनन सस्थान भी नही जीव के किंचित मात्र । राग द्वष मोहादि भाव भी नही जीव के किंचित मात्रा ।१९।। सर्वभाव से भिन्न निकाली पूर्ण ज्ञानमय ज्ञायक मात्र । नित्य, धोव्य, चिद्रूप, निरजन, दर्शनज्ञानमयी चिन्मात्र ॥२०॥ वाक, जाल मे जो उलझे वह कभी सुलझ न पायेगे । निज अनुभव रस पान किये बिन नहीं मोक्ष मे जायेगे॥२१॥ अनुभव ही तो शिवसमुद्र है अनुभव शाश्वत सुख का स्त्रोत । अनुभव परमसत्य शिव सुन्दर अनुभवशिव से ओतप्रोत ।।२२।। निज स्वभाव के सम्मुख होजा पर से दृष्टिहटा भगवान । पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रकट कर आज अभी पा ले निर्वाण।२३॥ ज्ञान चेतना सिंधु स्वय तू स्वय अनन्त गुणों का भूप । त्रिभुवन पति सर्वज्ञ ज्योतिमय वितामणि चेतन चिप ॥२४॥ यह उपदेश श्रवण कर हे प्रभु मैत्री भाव हृदय था । जो विपरीत वृत्तिवाले हैं उन पर मैं समता पारूँ॥२५॥