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जैन पूजाजलि शुद्ध बुद्ध हू ज्ञायक हु ये सब विधि के विकल्प भी छोड । राग नहीं मैं बध नही मैं ये निषेध के विकल्प तोड़ । ।
चौदहवे मे शेष प्रकृति पिच्चासी का होता है क्षय । प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती पूर्ण विलय।।२४।। ऊर्ध्व गमनकर देहमुक्त हो सिद्ध शिला लोकाग्र निवास । पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रगट, होता है सादि अनन्त प्रकाश ।।२५।। काल अनन्त व्यर्थ ही खोये दुख अनन्त अब तक पाये । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव-भव परिवर्तन पाचो पाये।।२६।। पर भावो मे मग्न रहा तो रही विकारी ही पर्याय । निजस्वभाव का आश्रय लेता होती प्रगट शुद्ध पर्याय।२७।। अष्ट कर्म से रहित अवस्था पाऊँ परम शुद्ध हे देव । शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वभाव से मैं भी सिद्ध बनूँ स्वयमेव ।।२८।। इसीलिए हे स्वामी मैने अष्ट द्रव्य से की पूजन । तुम समान मै भी बनजाऊँ ले निज ध्रुव का अवलब ।। ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याण प्राप्ताय पूर्णाऱ्या नि
सेही चिन्ह चरण मे शोभित श्री अनतप्रभु पद उर धार । मन वच तन जो ध्यान लगाते हो जाते भव सागर पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र- ॐ ह्री श्री अनननाथ जिनेंद्राय नम
श्री धर्मनाथ जिन पूजन धर्म धर्मपति धर्म तीर्थयुत ध्यान धुरन्धर प्रभु ध्रुववान । धर्म प्रबोधन धर्म विनायक ध्यान ध्येय ध्याता धीमान । पच दशम तीर्थकर धर्मी धर्म तीर्थकर्ता धर्मेन्द्र । धर्म प्रचारक धर्मनाथ प्रभु जयति धर्मगुरु धर्म जिनेन्द्र ।। ॐ ह्री श्री धमनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् ॐ ह्री श्री धमनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव
वषट ।