Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 286
________________ २७० जैन पूजांजलि साक्षात अरहत देव का भी उपदेश न मगलमय । अपने को यदि नहीं जान पाया तो सभी उदगलमय । । फिर तुम त्रिपृष्ठ नारायण बन, हो गये अर्धचक्री प्रधान । फिर भी परिणाम नहीं सुधरे भवभ्रमण किया तुमने अजाना ।५।। फिर देव नरक त्रिर्यन्च मनुज चारोगतियो मे भरमाये । पर्याय सिंह की पुन मिली पाचो समवाय निकट आये ॥६॥ अजितजय और अमितगुण चारणमुनि नभ से भूपरआये । उपदेश मिला उनका तुमको नयनो मे आसू भर आये ।।७।। सम्यक्त्व हो गया प्राप्त तुम्हे, मिथ्यात्त्व गया, व्रतग्रहणकिया । फिर देव हुए तुम सिंहकेतु सौधर्म स्वर्ग मे रमणकिया ।।८।। फिर कनकोज्ज्वलविद्याधर हो मुनिव्रत से लातवस्वर्ग मिला । फिर हुए अयोध्या के राजा हरिषेण साधुपद ह्रदयखिला ।।९।। फिर महाशुक्र सुरलोक मिला चयकरचक्री प्रियपित्र हुए । फिर मुनिपद धारण करके प्रभु तुम सहस्त्रार मे देवहुए।।१०।। फिर हुए नन्दराजा मुनि बन तीर्थकर नाम प्रकृतिबाँधी । पुष्पोत्तर मे हो अच्युतेन्द्र भावना आत्मा की साधी ।।११।। तुम स्वर्गयान पुष्पोत्तर तज मा त्रिशला के उर मे आये । छह मास पूर्व से जन्मदिवस तक रत्न इन्द्र ने बरसाये ॥१२॥ वैशाली के कुण्डलपुर मे हे स्वामी तुमने जन्म लिया । मुरपति ने हर्षित गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेककिया ।।१३।। शुभ नाम तुम्हारा वर्द्धमान रख प्रमुदित हुआ इन्द्रभारी । बालकपन मे क्रीडाकरते तुम मति श्रुतिअवधिज्ञानधारी ।।१४।। मजय अरु विजय महामुनियो को दर्शन का विचार आया । शिशु वर्द्धमान के दर्शन से शका का समाधानपाया ।।१५।। पुनिवर ने सन्मति नाम रखा वे नमस्कार कर चले गये । तुम आठवर्ष की अल्पआयु मेही अणुव्रत मे ढले गये ।।१६।। सगम नामक एक देव परीक्षा हेतु नाग बनकर आया । तुमने निशक उसके फणपर चढ नृत्यकिया वह हर्षाया।१७।।

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