Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 293
________________ २७७ श्री त्रिकाल चौबीसी जिन पूजन मुर्छा भाव नहीं है मुझ में सर्व शल्य से ह नि शल्य । आत्म भावना के अतिरिक्त नहीं है मुझमें कोई शल्य ।। श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र पूजन अष्टापद कैलाश श्री सम्मेदाचल चम्पापुर धाम । उर्जयत गिरनार शिखर पावापुर सबको करुं प्रणाम ।। ऋषभादिक चौबीस जिनेश्वर मुक्ति वधु के कत हुए । पच तीथों से तीर्थकर परम सिद्ध भगवन्त हुए ।। ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाणक्षेत्राणि अत्र अवतर अवतर संवोषट् । ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्राणि अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्राणि अत्र मम सनिहितोभव भव वषट् । जन्म मरण से व्यथित हुआ हुँ भव अनादि अनादि से दुखपाया । परम पारिणामिक स्वभाव का निर्मल जल पाने आया ।। अष्टापद सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार । चौबीसो तीर्थंकर की निर्वाण भूमि वन्दू सुखकार ॥१॥ ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाणक्षेत्रेभ्योजन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । भव आतप से दग्ध हुआ मैं प्रतिपल दुख अनन्त पाया । परम पारिणामिक स्वभाव का निज चदन पाने आया ।।अष्टा ।।२।। ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो ससार ताप विनाशनायचदन नि । भव समुद्र मे चहुँ गति की भवरो मे डूबा उतराया । परम पारिणामिक स्वभाव से अक्षयपद पाने आया । ।अष्टा ॥३॥ ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । काम भोग बन्धन मे पडकर शील स्वभाव नहीं पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के सहज पुष्प पाने आया ।।अष्टा ।।४।। ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । तृष्णा की ज्वाला मे जल जल तृप्त नहीं मैं हो पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के शुचिमय चरूपाने आया ||अष्टा || ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । सम्यक्तान बिना प्रभु अबतक निजस्वरुप ना लख पाया । परम पारिणामिक स्वभाव की दीप ज्योति पाने आया ||अष्टा ।।६।।

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