Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 296
________________ २८० जैन पूजाँजलि पर से प्रथाभूत होने पर ज्ञान भावना जाती है । निज स्वभाव से सजी साधना देख कलुषता मगती है ।। श्री त्रिकाल चौबीसी जिन पूजन श्री निर्वाण आदि तीर्थकर भूतकाल के तुम्हे नमन । श्री वृषभादिक वीर जिनेश्वर वर्तमान के तुम्हे नमन ।। महापा अनतवीर्य तीर्थंकर भावी तुम्हे नमन । भूत भविष्यत् वर्तमान की चौबीसी को करूं नमन । । ॐ ही भरत क्षेत्र सबधी भूत भविष्य वर्तमान जिन तीर्थकर समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट । ॐ ह्री भूत भविष्य वर्तमान जिन तीर्थकर समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ,। ॐ ह्री भूत भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थकर समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । सात तत्व श्रद्धा के जल से मिथ्या मल को दर करूँ। जन्म जरा भय परण नाश हित पर विभाव चकचूर करूँ ।। भूत भविष्यत् वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ। क्रोध लोभ मद माया हरकर मोह क्षोभ को शमन करूँ ।।१।। ॐ ह्रीं भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि नव पदार्थ को ज्यो का त्यो लख वस्तु तत्त्व पहचान करूँ। भव आताप नशाऊँ मै निज गुण चदन बहुमान करूँ भूत ।।२।। ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन नि षद्रव्यो से पूर्ण विश्व मे आत्म द्रव्य का ज्ञान करूँ । अक्षय पद पाने को अक्षत गुण से निज कल्याण करूँ भूत ॥३॥ ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षर्त नि जानें मै पचास्ति काय को पच महाव्रत शील धरूँ। काम व्याधि का नाश करूँनिज आत्म पुष्प की सुरभि वरूँ भूत ।।४।। ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि शुद्ध भाव नैवेद्य ग्रहण कर क्षुधा रोग को विजय करूँ । तीन लोक चौदह राजू ऊँचे मे मोहित अब न फिरूँ भूत. ।।५।। ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य नि ज्ञान दीप की विमल ज्योति से मोह तिमिर क्षय कर मान । त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य गुण पर्याये युगपत जानें ।।भूत ॥६॥

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