Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 305
________________ २८९ श्री तीर्थराज सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र पूजन सर्व चेष्टा रहित पूर्णा निष्क्रिम हो तू कर निज का ध्यान । दश्य जगत के भ्रम को तज दें पाऐगा उत्तम निर्वाण ।। पुण्य फलो मे तीव्र राग कर सदा पाप ही उपजाया । पाप पुण्य से रहित शुद्ध परमातम पद पाने आया । तीर्थराज ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल नि । है अनादि भव रोग न इसकी औषधि अब तक कर पाया । निज अनर्घ पद पाने का अब तो अपूर्व अवसर आया । तीर्थराज ।।९॥ ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनर्थ पद प्राप्तये अयं नि । जयमाला सम्मेदाचल शीश से तीर्थंकर मुनिराज । सिद्ध हुए सम श्रेणी मे ऊपर रहे विराज ॥१॥ प्रभु चरणाम्बुज पूज कर धन्य हुआ मै आज । भाव सहित बन्दन करूँ निज शिव सुख के काज ॥२॥ जय जय शाश्वत सम्मेदाचल तीर्थ विश्व मे श्रेष्ठ प्रधान । भूत भविष्यत् वर्तमान के तीर्थकर पाते निर्वाण ॥३।। परम तपस्या भूमि सुपावन है अनन्त मुनिराजो की । शुभ पवित्र निर्वाण धरा है यह महान जिनराजो की ॥४॥ लक्ष लक्ष वृक्षो की हरियाली से पर्वत शोभित है । वातावरण शान्तमय सुन्दर लख कर यह जग मोहित है ।।५।। शीतल अरु गन्धर्व सलिल निर्झर जल धाराये न्यारी । भॉति भॉति के पक्षीगण करते है कलरव मनहारी ॥६॥ पर्वत पारसनाथ मनोरम यह सम्मेदशिखर अनुपम । भाव सहित जो बन्दन करते उनका क्षय होता भ्रमतम ॥७॥ बीस टोक पर बीस तीर्थंकर के चरण चिन्ह अभिराम । शेष टोक पर चार जिनेश्वर श्री मुनियो के चरण ललाम ॥८॥ प्रथम टोंक है कुन्थनाथ की प्रात रवि बन्दन करता । अन्तिम पाश्र्वनाथ प्रभु की है सध्या सूर्य नमन करता ॥९॥

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