Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 315
________________ श्री पावापुरी निर्वाण क्षेत्र पूजन २९९ पर्यायों के भवर जाल मे उलझा स्वय दुख पाता है । निज स्वरुप से सदा अपरिचित रह भव कष्ट उठाता है । । सुर कल्प वृक्ष फल आज पावन लाया है। शिवसुखमय मोक्ष स्वराज पाने आया हूँ ।।पावापुर ८॥ ॐ ही श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि । निज अनर्घ अनूठा देव पावन लाया हूँ। निज सिद्ध स्वपद स्वयमेव पाने आया हूँ पावापुर ॥९॥ ॐ ही श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्ण्य पद प्राप्तये अर्घ्य नि । जयमाला पावापुर जिनतीर्थ को निज प्रति करू प्रणाम । महावीर निर्वाण भू सुन्दर सुखद ललाम ॥१॥ त्रिशलानदन नृप सिद्धार्थराज के पुत्र सुवीर जिनेश ।। कु डलपुर के राजकुवर वैशालिक सन्मति नाथ महेश ॥२॥ गर्भ जन्म कल्याण प्राप्तकर भी न बने भोगो के दास । बाल ब्रम्हचारी रहकर भवतन भोगो से हुए उदास ॥३।। तीस वर्ष मे दीक्षा लेली बारह वर्ष किया तप ध्यान । पाप पुण्य परभाव नाशकर प्रभु ने पाया केवलज्ञान ॥४॥ समवशरण रचकर इन्द्रो ने किया ज्ञान कल्याण महान । खिरी दिव्यध्वनि विपुलाचल पर सबनेकिया आत्मकल्याण ।।५।। तीस वर्ष तक कर विहार सन्मति पावापुर मे आये । शुक्ल ध्यानधर योग निरोध किया जगती मगल गाये ॥६॥ अ इ उ ऋ ल उच्चारण मे लगता है जितनाकाल ।। कर्मप्रकृति पच्चासीक्षयकर जा पहचे त्रिभुवन के भाल ।।७।। कार्तिक कृष्ण अमावस्या का ऊषाकाल महान हुआ । वर्धमान अतिवीर वीर श्री महावीर निर्वाण हुआ ॥८॥ धन्य हो गई पावानगरी धन्य हुआ यह भारत देश । अष्टादश गणराज्यो के राजों ने उत्सव किया विशेष ॥९॥

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