Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 317
________________ - - महा अर्घ पाप पुण्य का फल बधन है शद्धभाव से होता मुक्त । शुद्ध भाव से जो सुदूर है वहीं जीव पर से सयुक्त ।। महा अर्थ श्री अरहत देव को पूर्जे श्री सिद्ध प्रभु को पूर्जे । आचार्यों के चरणाम्बुज, श्री उपाध्याय के पद पूर्जे ॥१॥ सर्व साधु पद पूर्जे, श्री जिन द्वादशाग वाणी पूनँ । तीस चौबीसी बीस विदेही, जिनवर सीमधर पूर्जे ॥२॥ कृत्रिम अकृत्रिम तीन लोक के जिनगृह जिन प्रतिमा पूनँ । पचमेरु नन्दीश्वर पूजूं तेरह दीप चैत्य पूजें ।।३।। सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय धर्म सदा पूजें । भत भविष्यत् वर्तमान की त्रय जिन चौबीसी पूनँ ।।४।। श्री वृषभादिक वीर जिनेश्वर ऋषि गणधा स्वामी पूर्जे । श्री जिनराज सहस्त्रनाम श्री मोक्ष शास्त्र आदि पूर्जे ॥५॥ श्री पच कल्याणक पू» विविध विधान महा पूनँ । गौतम स्वामी, कुन्दकुन्द आचार्य समयसार पूर्जे ॥६।। चम्पापुर पावापुर गिरनारी कैलाश शिखर पूनँ । श्री सम्मेद शिखर पर्वत जिनवर निर्वाण क्षेत्र पूर्जे ।।७।। तीर्थंकर की जन्म भूमि अतिशय अरु सिद्ध क्षेत्र पूनँ । श्री जिन धर्म श्रेष्ठ मगलमय महा अर्घ दे मै पूजें ।।८।। ॐ ही भावपूजा, भाव बन्दना त्रिकाल पूजा, त्रिकाल बन्दना, करवी करावी, भावना भाववी, श्री अरहत जी, सिद्ध जी, आचार्य जी, उपाध्याय जी, सर्व साधु जी पचपरमेष्ठिभ्यो नम । प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगेभ्यो नम । दर्शनविशुद्धयादि षोडसकारणेभ्यो नमः । उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्मेभ्यो नम । सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र रत्नत्रयम्यो नम । जल विषे, थलविषे आकाशविषे गुफाविषे, पहाडविषे नगर नगरीविषे कृत्रिम अकृत्रिम जिन बिम्बेभ्यो नम । विदेशक्षेत्र स्थित विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो नम । पाच भरत पाच एरावत दश क्षेत्र सम्बन्धी तीस चोबीसीना सात सौ बीस तीर्थकरेभ्यो नम । नन्दीश्वर द्वीप स्थित बावन जिन चैत्यालयेभ्यो नम । श्री सम्मेदशिखर कैलाशगिर, चपापुर पावापुर

Loading...

Page Navigation
1 ... 315 316 317 318 319 320 321