Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 319
________________ क्षमापना पाठ ३०३ आगम के अभ्यास पूर्वक श्रद्धाज्ञान चरित्र सवार । निज में ही सकल भाव लाकर तू अपना रुप निहार ।। आत्म ज्ञान की महाशक्ति से परम शाति सुखकारी हो । ज्ञानी ध्यानी महा तपस्वी स्वामी मगलकारी हो ॥१०॥ धर्म ध्यान मे लीन रहूँ मैं प्रभु के पावन चरण गहूँ । जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ सदा आपकी शरण लहूँ ॥११॥ श्री जिनेन्द्र के धर्मचक्र से प्राणि मात्र का हो कल्याण । परम शान्ति हो, परम शाति हो, परमशाति हो हे भगवन ॥१२॥ शाति धारा नौबार णमोकार मत्र का जाप्य । क्षमापना पाठ जो भी भूल हुई प्रभु मुझ से उसकी क्षमा याचना है । द्रव्य भाव की भूल न हो अब ऐसी सदा कामना है ॥१॥ तुम प्रसाद से परम सौख्य हो ऐसी विनय भावना है। जिन गुण सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँ यही साधना है ॥२॥ शुद्धातम का आश्रय लेकर तुम समान प्रभु बन जाऊँ । सिद्ध स्वपद पाकर हे स्वामी फिर न लौट भव मे आऊँ ।३।। ज्ञान हीन हूँ क्रिया हीन हूँ द्रव्य हीन हूँ हे जिनदेव । भाव सुमन अर्पित है हे प्रभु पाऊँ परम शाति स्वयमेव ।।४।। पूजन शाति विसर्जन करके निज आतम का ध्यान धरूँ। जिन पूजन का यह फल पाऊँ मै शाश्वत कल्याण करूँ।।५।। मगलमय भगवान वीर प्रभु मंगलमय गौतम गणधर । मगलमय श्री कुन्द कुन्द मुनि मगल जिनवाणी सुखकर।।६।। सर्व प्रगलों में उत्तम है णमोकार का पत्र महान । श्री जिनधर्म श्रेष्ठ मगलमय अनुपम वीतराग विज्ञान ।।७।।

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