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जैन पूजांजलि यदि समता परिणाम नहीं है तो स्वभाव की प्राप्ति नही । यदि स्वभाव की प्राप्ति नहीं तो होती सुख की व्याप्ति नही ।।
जिनालय दर्शन पाठ श्री जिन मदिर झलक देखते ही होता है हर्ष महान । सर्व पाप मल क्षय हो जाते होता अतिशय पुण्य प्रधान ॥१॥ जिन मदिर के निकट पहुचते ही जगता उर मे उल्लास ।। धवल शिखर का नील गगन से बाते करता उच्च निवास ॥२॥ स्वर्ण कलश की छटा मनोरम सूर्य किरण आभासी पीत । उच्च गगन मे जिन ध्वज लहराता तीनो लोको को जीत ।।३।। तोरण द्वारो की शोभा लख पुलकित होते भव्य हृदय । सोपानो से चढ मदिर में करते है प्रवेश निर्भय ॥४|| नि सहि नि उच्चारण कर शीष झका गाते जयगान ।। जिन गुण सपति प्राप्ति हेतु मदिर मे आए है भगवान ।।५।।
जिन दर्शन पाठ धर्म चक्रपति जिन तीर्थंकर वीतराग जिनवर स्वामी । अष्टादश दोषो से विरहित परम पूज्य अतर्यामी ॥१॥ मोह मल्ल को जीता तुमने केवल ज्ञान लब्धि पायी । विमल कीर्ति की विजय पताका तीन लोक मे लहरायी ॥२॥ निज स्वभाव का अवलबन ले मोह नाश सर्वज्ञ हुए । इन्द्रिय विषय कषाय जीत कर निज स्वभाव मर्मज्ञ हुए ॥३।। भेद ज्ञान विज्ञान प्राप्त कर आत्म ध्यान तल्लीन हुए । निर्विकल्प परमात्म परम पद पाया परम प्रवीण हुए ।।४।। दर्शन ज्ञान वीर्य सुख मडित गुण अनत के पावन धाम । सर्व ज्ञेय ज्ञाता होकर भी करते निजानद विश्राम ॥५॥ महाभाग्य से जिनकुल जिनश्रुत जिन दर्शन मैने पाया । मिथ्यातम के नाश हेतु प्रभु चरण शरण मे मैं आया ॥६॥ तृष्णा रुपी अग्नि ज्वाल भव भव सतापित करती है । विषय भोग वासना हृदय मे पाप भाव ही भरती है ॥७॥ इस ससार महा दुख सागर से प्रभु मुझको पार करो । केवल यही विनय है मेरी अब मेरा उद्धार करो ।।८।।