Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 312
________________ २९६ जैन पूजाँजलि हित का कारण त्वरित ग्रहण कर त्वरित अहित कारण का त्याग । आत्म तत्व से जो विरुद्ध है उसका कारण से धार विराग ।। प्रथम टोक पर नेमिनाथ प्रभु के जिन मन्दिर बने विशाल । स्वर्ण शिखर ध्वज दड आदि से है शोभायमान तिहुँकाल ।।२।। राजुल गुफा बनी अति सुन्दर सयम का पथ बतलाती । वीतराग निग्रंथ भावनामयी मोक्ष पथ दर्शाती ॥३॥ चरण चिन्ह ऋषियो के पावन देते वीतराग सदेश । नेमिनाथ ने भव्य जनो को दिया विरागमयी उपदेश ।।४।। द्वितीय टोकपर श्री मुनियो के चरण कमल है दिव्यललाम । भाव पूर्वक अर्थ्य चढाकर मै लू प्रभु निज मे विश्रम ॥५॥ तृतीय टोक पर ऋषि मुनियो केचरणाम्बुज अतिशोभित है । दर्शनार्थी दर्शन करके इन पर होते मोहित हैं ।।६।। चौथी टोक महान कठिन है इस पर चरण चिन्ह सुखकार । निज स्वभाव की पावन महिमा सुरनर मुनि गातेजयकार ।।७।। श्री कृष्ण रुकमणी पुत्र श्री कामदेव प्रद्युम्नकुमार । ले विराग सयम धर मुक्त हुए पहुंचे भव सागरपार ।।८।। शम्बुकुमार तथा अनिरुद्धकुमार आदि मुनि मुक्त हुए । निज स्वभाव की अमर साधना कर शिवपद सयुक्त हुए।।९।। पचम टोक नेमि प्रभु की परम तपस्या भूमि महान । निज स्वभाव साधन के द्वारा पाया सिद्ध स्वपद निर्वाण ।।१०।। इन्द्रादिक देवो ने हर्षित किया यहाँ पचम कल्याण । कोटि कोटि मुनियोने तप कर पाया सिद्ध स्वपद ॥११॥ एक शिला पर प्रभु की अनुपम मूर्ति यहाँ उत्कीर्ण प्रधान । चरण चिन्ह श्री नेमिनाथ प्रभु के हैं जग मे श्रेष्ठ महान ॥१२॥ इसी टोक से चउ अघातिया कर्मों का करके अवसान । एक समय मे सिद्ध शिला पर नाथ विराजे महा महान ॥१३॥ नेमिनाथ के दर्शन होते चढकर दस सहस्त्र सोपान । हो जाती है पूर्ण यात्रा होता उर मे हर्ष महान ॥१४॥

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