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जैन पूजॉजलि अतरग बहिरग परिग्रह तजने का ही कर अभ्यास ।
इसके बिना नही तू होगा साधु कभी भी कर विश्वास ।। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर सवोषट्, ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र अत्र मम सनिहितो भवभव वषट् । अगणित सागर पी डाले पर प्यास न कभी बुझा पाया । अनुपम सुखमय निर्मल शीतल समता जल पीने आया । तीर्थराज सम्मेद शिखर की पूजन कर उर हर्षाया । बीस तीर्थकर की यह निर्वाण भूमि लख सुख पाया ।।। ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । पर भावो के सतापो मे उलझ उलझ अति दुख पाया । ज्ञानानन्दी शुद्ध स्वभावी निज चदन लेने आया । ।तीर्थराज ॥२।। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारताप विनाशनाय चदन नि । निज चैतन्य रुप को भूला पर ममत्व मे भरमाया । अक्षय चेतन पदपाने को चरण शरण मे मैं आया । ।तीर्थराज ।।३।। ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । पर द्रव्यो से राग हटाने का पुरुषार्थ न कर पाया । शील स्वभाव शान्तपाने को कामनाश करने आया । तीर्थराज ।।४।। ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । तीन लोक का अन प्राप्तकर भूख न कभी मिटा पाया । क्षुधाव्याधि का रोगनशाने निज स्वभाव पानेआया ।।तीर्थराज ।।५।। ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । मोह तिमिर के कारण अब तक सम्यक ज्ञान नहीं पाया । आत्म दीप की ज्योतिजगाने भेद ज्ञान करने आया । तीर्थराज ॥६॥ ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । आत्म ध्यान बिन भव की भीषण ज्वाला मे जल दु खपाया । अष्टकर्म सम्पूर्ण जलाने ध्यान अग्नि पाने आया । ।तीर्थराज ॥७॥ ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म विनाशनाय धूप नि ।