Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 299
________________ २८३ - श्री अष्टापद कैलाश निर्वाण क्षेत्र पूजन जन्म जरा मरणादि व्याधि से रहित आत्मा ही अद्वैत । परम भाव परिणामों से भी विरहत कहीं इसमें दैत ।। सम्यक दर्शन अष्ट अगसह अष्ट भेद सह सम्यक ज्ञान । तेरह विध चारित्र धारलू द्वादश तप भावना प्रधान ॥६॥ हे जिनवर आशीर्वाद दो निज स्वरुप मे रमजाऊँ। निज स्वभाव अवलबन द्वारा शाश्वत निज पद प्रगटाऊ ॥७॥ ॐ हीं भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थकरेभ्यो पूर्णाध्यं नि । तीन काल की त्रय चौबीसी की महिमा है अपरम्पार । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते भव से पार ॥८॥ इत्याशीर्वाद जाप्य- ॐ ह्री श्री भूत भविष्य वर्तमान तीर्थंकरेभ्यो नम । दर्शन पाठ - देव आपके दर्शन पाकर उमगा है उर मे उल्लास । सम्यक पथ पर चलकर मै भी आऊनाथ आप के पास ॥१॥ भक्ति आपकी सदा ह्रदय मे रहे अडोल अक्म समत । तुम्हे जानकर निज को जानू यही भावना है भगवत ॥२॥ रागादिक विकार सब नारों दुष्प्रवृतियाँ कर सहार । मोक्ष मार्ग उपदेष्टा प्रभु तुम भव्य जनो के हो आधार ॥३॥ प्रभो आपके दर्शन का फल यही चाहता हूँ दिन रात । स्व पर भेद विज्ञान प्राप्त कर पाऊँमगलमयी प्रभात ॥४॥ जय हो जय हो जय हो जय हो परमदेव त्रिभुवन नामी । ध्रुव स्वभाव का आश्रय लेकर बन जाऊँशिव पथगामी ॥५॥

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