Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 298
________________ २८२ जैन पूजांजलि निज अनुभव अभ्यास अध्ययन से होता है ज्ञान यथार्थ । पर का अध्यवसान दुख मयी चारों गति दुख मयी परार्थ ।। कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लि, प्रभु मुनिसुव्रत, नमिनाथ, जिनेश । नेमिनाथ, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु महावीर, प्रभु महा महेश ॥३॥ पूज्य पंच कल्याण विभूषित वर्तमान चौबीसी जय । जबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के तीर्थकरेभ्यो प्रभ की जय जय ।।४।। ॐ हीं भरत क्षेत्र सबधी वर्तमान चतुर्विशति जिनेन्द्राय अर्घ नि । श्री भविष्यकाल चौबीसी जय प्रभु महाफा सुरप्रभ, जय सुप्रभ, जयति स्वयप्रभु, नाथ । सर्वायुध, जयदेव, उदयप्रभ, प्रभादेव, जय उदक नाथ ।। प्रश्नकीर्ति, जयकीर्ति जयति जय पूर्णबुद्धि, निकषाय, जिनेश । जयति विमल प्रभु जयति बहुल प्रभु, निर्मल, चित्र गुप्ति, परमेश । जयति समाधि गुप्ति, जय स्वयभ, जय कर्दप, देव जयनाथ । जयति विमल, जय दिव्यवाद, जय जयति अनतवीर्य, जगन्नाथ ।। जबूद्वीप सु भरत क्षेत्र के तीर्थंकर प्रभु की जय जय ।। ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र सबधी भविष्यकाल चतुर्विशति जिनेन्द्राय अर्घ नि । जयमाला तीन काल त्रय चौबीसी के नरें बहात्तर तीर्थकर । विनय भक्ति से श्रद्धापूर्वक पाऊँ निज पद प्रभु सत्वर ॥१॥ मैने काल अनादि गवाया पर पदार्थ मे रच पचकर । पर भावो मे मग्न रहा मैं निज भावो से बच बचकर ॥२॥ इसीलिए चारो गतियो के कष्ट अनत सहे मैंने । धर्म मार्ग पर दृष्टि न डाली कर्म कुपथ गहे मैने ॥३॥ आज पुण्य संयोग मिला प्रभु शरण आपकी मैं आया । भव भव के अघ नष्ट हो गए मानो चिंतामणि पाया ।।४।। हे प्रभु मुझको विमल ज्ञान दो सम्यक पथ पर आ जाऊँ। रत्नत्रय की धर्मनाव चढ भव सागर से तर जाऊँ ।।५।।

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