Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 297
________________ २८१ - श्री अष्टापद कैलाश निर्वाण भ्रम से क्षुब्ध हुआ मन होता व्यग्र सदा पर भावों से ।। अनुभव बिना भ्रमित होता है जुडता नही विभावों से । । ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनायदीप नि । निज समान सब जीव जानकर षट कायक रक्षा पालें । शुक्ल ध्यान की शुद्ध धूप से अष्ट कर्म क्षय कर डालूँ ।भूत ॥७॥ ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । पच समिति त्रय गुप्ति पच इन्द्रिय निरोध व्रत पचाचार । अट्ठाईस मूल गुण पाले पच लब्धि फल मोक्ष अपार ।भूत ॥८॥ ॐ ह्री भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि .. छयालीस गुण सहित दोष अष्टादश रहित बने अरहत । गण अनत सिद्धो के पाकर लू अनर्घ पद हे भगवत ।भूत ॥९॥ ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्ष नि । श्री भूतकाल चौबीसी जय निर्वाण, जयति सागर, जय महासाधु, जय विमल, प्रभो । जय शुद्धाभ, देव जय श्रीधर, श्री दत्त, सिद्धाभ, विभो ॥१॥ जयति अमल प्रभु, जय उद्धार, देव जय अग्नि देव सयम ।। जय शिवगण, पुष्पांजलि, जय उत्साह, जयति परमेश्वर नम ॥२॥ जय ज्ञानेश्वर, जय विमलेश्वर, जयति यशोधर, प्रभु जय जय ।। जयति कृष्णमति, जयति ज्ञानमति, जयति शुद्धमति जय जय जय ॥३॥ जय श्रीभद्र, अनतवीर्य जय भूतकाल चौबीसी जय । जबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के जिन तीर्थंकर की जय जय ।।४।। ॐ ह्री भरत क्षेत्र सबधी भूतकाल चतुर्विशति जिनेन्द्राय अर्घ नि । श्री वर्तमान काल चौबीसी ऋषभदेव, जय अजितनाथ, प्रभु सभव स्वामी, अभिनदन । सुमतिनाथ, जय जयति पाप्रभु, जय सुपार्श्व, चदा प्रभु जिन ॥१॥ पुष्पदत, शीतल, जिन स्वामी जय श्रेयास नाथ भगवान । वासुपूज्य, प्रभु विमल, अनत, सु धर्मनाथ, जिन शाति महान ।।२।।

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