Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 292
________________ - २७६ जैन पूजाजलि शुद्ध आत्मा की उपासना है विश्व कल्याणा मयी । यही मुक्ति का मार्ग शाश्वत यह शाश्वत निर्वाणामयी । । नेमिनाथ के ग्यारह गणधर मे वरदत्त हुए स्वयमेव ।।१३।। पाश्र्वनाथ प्रभु के दस गणधर मे थे मुख्य स्वयभू नाम । महावीर के ग्यारह गणधर, इन्द्रभूति गौतम गुणधाम ॥१४॥ ये चौदह सौ उन्सठ गणधर इनकी महिमा अपरम्पार । केवलज्ञान लब्धि को पाकर सभी हुए भवसागर पार ।।१५।। तीर्थंकर प्रभु शुक्ल ध्यान धर जब पाते हैं केवलज्ञान । देवो द्वारा समवशरण की रचना होती दिव्य महान।।१६।। द्वादश सभासहज जुड़ती है अन्तरीक्ष प्रभु फ्यासन । गणधर के आते ही होती प्रभ की दिव्य ध्वनि पावन ॥१७॥ मेघगर्जनासम जिनध्वनि का बहता है अतिसलिलप्रवाह ।। ओकार ध्वनि सर्वागो से झरती देती ज्ञान अथाह ।।१८।। दिव्य ध्वनि खिरते ही गणधर तत्क्षण उसे झेलते हैं । छठे सातवे गुणस्थान मे बारम्बार खेलते है ।।१९।। छहछह घडी दिव्यध्वनि खिरतीचारसमय नितमगलमय । वस्तुतत्त्व उपदेश श्रवणकर भव्य जीव होते निज मय ॥२०॥ जिन जीवो की जो भाषा उसमे हो जाती परिवर्तित । मात शतक लघु और महाभाषा अष्टादशमयी अमित ॥२१॥ रच देते अतमुहूर्त मे द्वादशागमय जिनवाणी । दिव्यध्वनि बन्द होने पर व्याख्या करते जग कल्याणी ।।२२।। गणधर का अभाव हो तो दिव्यध्वनि रूप प्रवृत्ति नही । जिन ध्वनि अगर नहीं हो तो सशय की कभी निवृत्तिनहीं।।२३।। तीर्थकर की दिव्य ध्वनि गणधर होने पर ही खिरती । गणधर समुपस्थित न अगर हो वाणी कभी नहीं खिरती ।।२४।। इसीलिये तो महावीर प्रभु की दिव्य ध्वनि रुकी रही । छ्यासठदिन तक रहामौन सारी जगती अति चकित रही ।।२५।। इन्द्रभूति गौतम जब आए मुनि बन गणधर हुए स्वयम् । तभी दिव्यध्वनि गूजउठी जिन प्रभु की मेघगर्जना सम ॥२६॥

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