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जैन पूजाजलि सत्य स्वरूप आग्रह करके परम शान्त हो जामा ।
पर का आग्रह मानू गा तो पूर्णा भ्रान्त हो जा ।। ॐ ह्रीं श्री सर्वगणधरदेवाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । है श्रुत परिचित अनुभूतभोग, बधन की कथा सुलभ जग मे । भवताप हार एकत्वरूप, निज अनुभव अति दुर्लभ जगमे।।मैं ॥२॥ ॐ ही श्री सर्वगणघरदेवाय ससारतापविनाशनाय चदन नि । निज ज्ञायक भाव नही प्रमत्त या अप्रमत्त है क्षण भर भी । अक्षयअखड निजनिधिस्वामी इसमे न राग है कणभर भी। मैं ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वगणधरदेवाय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि। जड पुद्गल रागादिक विकार इनसे मेरा सम्बन्ध नहीं । निष्कामअतीन्द्रिय सुखसागर मुझमे पर का कुछ द्वद नही ।। मै ।।४।। ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । भूतार्थ आश्रित भव्य जीव ही सम्यक दृष्टि ज्ञानधारी । सम्यक चारित्र धार हरता है क्षधा व्याधि की बीमारी || मै ॥५॥ ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय क्षुधारोगविनाशनाय, नैवेद्य नि । जिन वच मे जो रमते पल मे वे मोह वमन कर देते है । वे स्वपर प्रकाशक स्वय ज्योतिसुखधाम परम पद लेते हैं।। मै ।।६।। ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । जीवादिक नवतत्त्वो मे भी निज की श्रद्धाप्रतीति समकित । मैं भेद ज्ञान पा हो जाऊप्रभु अष्टकर्म रज से विरहित ।। मै ७॥
ॐ ही श्री सर्वगणधरदेवाय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । चित्चमत्कार उद्योतवान चैतन्य मूर्ति निज परम श्रेय । मै स्वय मोक्षमगलमय हू पर भाव सकल है सदा हेय ।।मैं ॥८॥ ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । मैं हू अबद्ध अस्पृष्ट, नियत, अविशेष अनन्त गुण कार हूँ । मै हू अनर्घ पद का स्वामी प्रभु केवलज्ञान दिवाकर हूँ ।। मैं ।।९।। ॐ ही श्री सर्वगणधरदेवाय अनर्धपद प्राप्तये अयं नि ।