Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 289
________________ श्री तीर्थकर गणधरवलय पूजन २७३ अगर देत पर दृष्टि रहेगी तो भव विभ्रम दूर नही । निज अद्वैत दृष्टि होगी तो फिर निज के प्रतिकूल नही ।। मै इसी भावना से प्रेरित होकर चरणो मे आया हूँ। श्रद्धायुत विनयभाव से मैं यह भक्ति सुमनप्रभु लाया हूँ ।।४४।। तुमको है कोटि कोटि सादर बन्दन स्वामी स्वीकार करो । हे मगल मूर्ति तरण तारण अब मेरा बेडा पार करो ॥४५।। ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्तायअयं नि । सिंह चिन्ह शोभित चरण महावीर उरधार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र - ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय नम । श्री तीर्थकर गणधरवलय पूजन वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर तीर्थंकर चौबीस महान । इनके चौदह सौ उन्सठ गणधर को मै वन्दू धर ध्यान ।। ऋद्धि सिद्धि मंगल के दाना गणधर चार ज्ञान धारी । मति श्रुत अवधि मन पर्यय ज्ञानी भव ताप पाप हारी ।। पच महाव्रत पच समिति त्रय गप्ति सहित जग मे नामी। आठो पद अरु सप्त भयो से रहित महामुनि शिवगामी ।। बुद्धि बीज पादानुसारिणी आदि ऋद्धियो के स्वामी । द्वादशाग की रचना करते सर्व सिद्धियो के धामी ।। वृषभसेन आदिक गौतम गणधर को नितप्रति करप्रणाम । भक्तिभाव से चरण पूजकर मै पाऊँ सिद्धो का धाम ।। ॐ ही श्री सर्व गणधर देव समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् । एकत्व विभक्त आत्मा प्रभु निज वैभव से परिपूर्ण स्वयम् । यह जन्ममरण से रहित धौव्यशाश्वत शिवशुद्धस्वरुपपरम ।। मै चौबीसो तीर्थंकर के गणधरो को करूँ नमन । श्री द्वादशाग जिनवाणी के हे रचनाकार तुम्हे वन्दन ।।१।।

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