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श्री महावीर जिन पूजन
२७१ ज्ञान ध्यान वैराग्य भावना ही तो है शिव सुख का मूल ।
पर का गृहणा त्याग तो सारा निज स्वभाव के है प्रतिकूल ।। तत्क्षण हो प्रगट झुकामस्तक बोला स्वामी शत शत वदन । अति वीरवीर हे महावीर अपराधक्षमा करदो भगवन् ।।१८।। गजराज एक ने पागल हों आनकित सबको कर डाला । निर्भय उस पर आरुढ हुए पल भर मे शान्त बनाडाला ।।१९।। भव भोगो से होकर विरक्त तुमने विवाह से मुख मोडा । बस बाल ब्रहाचारी रहकर क्दर्प शत्रु का मद तोडा ॥२०॥ जब तीस वर्ष के युवा हुए वैराग्य भाव जगा मन मे । लौकांतिक आये धन्यधन्य दीक्षा ली ज्ञातखण्ड वन मे।।२१।। नृपराज बकुल के गृहजाकर पारणा किया गौ दुग्धलिया । देवो ने पचाश्चर्य किये जन जन ने जय जयकार किया ।।२२।। उज्जयनी की शमशानभूमि मे जाकर तुमने ध्यानकिया । सात्यिकी तनय भव रुद्र कुपितहो गया महाव्यवधान किया ।।२३।। उपसर्ग रुद्र ने किया तुम आत्म ध्यान मे रहे अटल । नतमस्तक रुद्र हुआ तब ही उपसर्ग जयी हुए सफल ।।२४।। कोशाम्बी मे उस सती चन्दना दासी का उद्धार किया । हो गया अभिग्रह पूर्ण चन्दना के कर से आहारलिया ।।२५।। नभ से पुष्पो की वर्षा लख नृप शतानीक पुलकितआये । बैशाली नृप चेतक बिछुडी चन्दना सुता पा हर्षाये ॥२६।। सगमक देव तुमसे हारा जिसने भीषण उपसर्ग किए । तुम आत्मध्यान मे रहे अटल अन्तर मे समता भावलिए ।।२७।। जितनी भी बाधाये आई उन सब पर तुमने जय पाई। द्वादश वर्षों की मौन तपस्या और साधना फल लाई ।।२८।। मोहारि जयी श्रेणी चढकर तुम शुक्ल ध्यान मे लीनहुए । ऋजुकूला के तट पर पाया कैवल्यपूर्ण स्वाधीन हुए ॥२९।। अपने स्वरुप मे मग्न हुए लेकर स्वभाव का अवलम्बन । घातियाकर्म चारों नाशे प्रगटाया केवलज्ञान स्वधन ।।३०।।