Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 285
________________ २६९ श्री महावीर जिन पूजन निज से त अनभिज्ञ अपरिचित पर से क्यों संबंधित है । दुष्कर्मों में दत्त चित्त है भोगों से स्पंदित है ।। चैत्र शुक्ल शुभ त्रयोदशी का दिवस पवित्र महान । हुए अवतरित भारत भू पर जग को दुखमय जान || धन्य ।।२।। ॐही चैत्रशुक्लात्रयोदश्या जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अयं नि । जग को अथिर जान छाया मन मे वैराग्य महान । मगसिर कृष्णदशमी के दिन तप हित किया प्रयाण ॥धन्य ॥३॥ ॐ हीं श्री मगसिर कृष्णदशम्या तपकल्याणक प्राप्ताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अयं नि । शुक्ल ध्यान के द्वारा करके कर्म घाति अवसान । शुभ वैशाख शुक्ल दशमी को पाया केवलज्ञान ॥धन्य ॥४॥ ॐ ही बैशाखशुक्ल दशम्या ज्ञानकल्याण प्राप्ताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अयं नि श्रावण कृष्ण एकम के दिन दे उपदेश महान । दिव्यध्वनि से समवशरण मे किया विश्व कल्याण ।। धन्य ।।५।। ॐ ह्री श्रावणकृष्णएकम् दिव्यध्वनि प्राप्ताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अयं नि । कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पाया पद निर्वाण। पूर्ण परम पद सिद्ध निरन्जन सादि अनन्त महान ॥धन्य ।।६।। ॐ ह्री कार्तिककृष्णअमावश्या मोक्षपदप्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्य नि । जयमाला जय महावीर त्रिशला नन्दन जय सन्मति वीर सुवीर नमन । जय वर्धमान सिद्धार्थ तनय जय वैशालिक अतिवीर नमन ॥१॥ तुमने अनादि से नित निगोद के भीषण दुख को सहनकिया । जस हुए कई भव के पीछे पर्याय मनुज मे जन्म लिया ॥२॥ पुरुरवा भील के जीवन से प्रारम्भ कहानी होती है । अनगिनती भव धारे जैसी मति हो वैसी गति होती है ।।३।। पुरुषार्थ किया पुण्योदय से तुम भरत पुत्र मारीच हुए । मुनि बने और फिर भ्रमित हुए शुभ अशुभभाव के बीचहुए ।।४।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321