Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 284
________________ २६८ जैन पूजाजलि स्वाध्याय के स्वर्णिम रथ पर, चढकर चलो मुक्ति की ओर । स्वाध्याय से ही पाओगे, केवल ज्ञानचद्र की कोर ।। नैवेद्य विविध खाकर भी तो यह भूख न मिटपाई अबतक । तृष्णा का उदरन भरपाया, पर की महिमा गाई अबतक ।। भावों के चरु लेकर अब मैं तृष्णाग्निबुझाने आया हूँ।हे महावीर।।५।। ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । मिथ्याभ्रम अन्धकारछाया सन्मार्ग न मिल पाया अबतक । अज्ञान अमावस के कारण निज ज्ञान न लख पाया अबतक । भावो का दीप जला अन्तर आलोक जगाने आया हूँ ॥हे महावीर।।६।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय मोहाधकार विनाशनाय दीपं नि । कमों की लीला मे पडकर भवभार बढाया है अब तक । ससार द्वद के पदे से निज धूम उडाया हे अब तक । भावो की धूप चढाकर मैं वसु कर्म जलाने आया हूँ ।।हे महावीर।।७।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । सयोगी भावो से भव ज्वाला मे जलता आया अब तक । शुभ के फल मे अनुकूल सयोगो को पा इतराया अब तक ।। भावो का फल ले निजस्वभाव काशिव पुलपाने आया हूँ ।।हे महावीर।।८।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि अपने स्वभाव के साधन का विश्वास नहीं आया अब तक । सिद्धत्व स्वय से आता है आभास नहीं पाया अब तक।। भावो का अयं चढ़ाकर मै अनुपमपद पाने आया हूँ ।। हे महावीर ।।९।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि श्री पंचकल्याणक धन्य तुम महावीरभगवान धन्य तुम वर्धमान भगवान । शुभ आषाढ शुक्ला षष्ठी को हुआ गर्भ कल्याण ॥ माँ त्रिशला के उर मे आये भव्य जनो के प्राण । धन्य तुम महावीर भगवान ॥१॥ ॐ ह्री श्री अषाढशुक्लाषष्ठया गर्भमगल प्राप्ताय महावीरजिनेंद्राय अर्घ्य नि ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321