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श्री शातिनाथ जिन पूजन
२३५ वर्तमान स्थूल दृष्टि से तेरा काम नहीं होगा ।
बिना पराश्रित दृष्टि तजे निज में विश्राम नही होगा ।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्पं नि । उर की क्षधा मिटाने वाला यह चरु तो दुखदायक है । इच्छाओ की भूख मिटाता निज स्वभाव सुखदायक है ।परम ।।५।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । अन्धकार मे भ्रमते-भ्रमते भव-भव मे दुख पाया है । निजस्वरूप के ज्ञान भानु का उदय न अबतक आया है ।। परम ।।६।। ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । इष्ट अनिष्ट सयोगो मे ही अब तक सुख दुख माना है । पूर्णत्रिकाली ध्रुवस्वभाव का बल न कभी पहचाना है ।परम ॥७॥ ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । शुद्ध भाव पीयूष त्यागकर पर को अपना मान लिया । पुण्य फलो मे रूचि करके अबतक मैने विष पानकिया ।।परम ।।८।। ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेद्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । अविनश्वर अनुपम अनर्घपद सिद्ध स्वरूप महा सुखकार । मोक्ष भवन निर्माता निज चैतन्य राग नाशकअघहार ।। परम ॥९॥ ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेद्राय अनर्घपद प्राप्तायअर्घ्य नि ।
श्री पंच कल्याणक भादव कृष्ण सप्तमी के दिन तज सर्वार्थ सिद्धि आये । माता ऐरा धन्य हो गयी विश्वसेन नृप हरषाये ।। छप्पन दिक्कुमारियो ने नित नवल गीत मगल गाये । शातिनाथ के गोत्सव पर रत्न इन्द्र ने बरसाये।।१।। ॐ ही श्री भाद्रपद कृष्ण सप्तम्या गर्भमगल प्राप्ताय श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । नगर हस्तिनापुर में जन्मे त्रिभुवन मे आनन्द हुआ । ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को सुरगिरि पर अभिषेक हुआ । मगल वाद्य नृत्य गीतो से गूज उठा था पाण्डुक वन । हुआ जन्म कल्याण महोत्सव शातिनाथप्रभु का शुभदिन ।।२।।