Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 270
________________ २५४ जैन पूजांजलि लोभ जीत सतोष शक्ति से तू फिर होगा कभी न क्लॉत । मोह क्षोभ के क्षय होते ही कर्मों का होगा प्राणात ।। मै भी स्वामी द्रव्यदृष्टि बन निजस्वभाव को प्रगटाऊँ। अष्टकर्म अरि पर जयपाकर सादिअनत स्वपद पाऊँ ॥१७।। मैं अनादि मिथ्यात्व पापहर द्रव्यदष्टि बन करूं प्रकाश । ध्रुव ध्रुव ध्रुव चैतन्यद्रव्य मै, परभावों का करूँ विनाश ।।१८।। पर्यायों से दूष्टि हटाकर निज स्वभाव मे आ जाऊँ। तुम चरणो की पूजन का फल द्रव्यदृष्टि अब बन जाऊँ ।।१९।। महापुण्य सयोग मिला तो शरण आपकी आया हूँ। मैं अनादि से पर्यायो मे मूढ बना भरमाया हूँ ॥२०॥ पाप ताप सन्ताप नष्ट हो मेरे हे मानिसव्रतनाथ । तुम चरणो की महाकृपा आशीर्वाद से बनें सनाथ ।।२१।। सकटहरण मुनिसुव्रत स्वामी मेरे सकट दूर करो । द्रव्यदृष्टि दो प्रभु मेरी पर्याय दूष्टि चकचूर करो।।२२।। ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या नि ।। कछुवा चिन्ह सुशोभित मुनिसुव्रतके चरणाम्बुज उरधार । भाव सहित जो पूजन करते वे हो जाते है भवपार ।। इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र -ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय नम श्री नमिनाथ जिनपूजन जय नमिनाथ निरायुध निर्गत निष्कषाय निर्भय निर्द्वद । निष्कलक निश्चल निष्कामी नित्य नमस्कृत नित्यानद ।। मिथ्यातम अविरति प्रमाद कषाय योग बध कर नाश । कर्म प्रकृतियों पूर्ण नष्टकर लिया सूर्य शुद्धात्म प्रकाश ॥ मै चौरासी के चक्कर में पड़ चहुगति भरमाया हूँ । भव का चक्र मिटाने को मै पूजन करने आया हूँ ।। यह विचित्र ससार और इसकी माया का करूँ अभाव । आत्म ज्ञान की दिव्य प्रभा से हे प्रभु पाऊँ शुद्ध स्वभाव ।।

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