Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 277
________________ २६१ श्री नेमिनाथ जिनपूजन नरक और पशु गति के दुख की सही वेदना सदा अपार । स्वों के नश्वर सुख पाकर भूला निज शिव सुख आगार || जयमाला जय नेमिनाथ नित्योदित जिन, जयनित्यानन्द नित्य चिन्मय । जय निर्विकल्प निश्चल निर्मल, जय निर्विकार नीरज निर्मय।।१।। नृपराज समुद्र विजय के सुत पाता शिव देवी के नन्दन । आनन्द शौर्यपुरी में छाया जय-जय से गूजा पाण्डुक वन।।२।। बालकपन मे क्रीड़ा करते तुमने धारे अणुव्रत सुखमय । द्वारिकापुरी मे रहे अवस्था पाई सुन्दर यौवन वय ।।३।। आमोद-प्रमोद तुम्हारे लख पूरा यादव कुल हर्षाता । तब श्री कृष्ण नारायण ने जूनागढ से जोडा नाता ॥४॥ राजुल से परिणय करने को जूनागढ़ पहुचे वर बनकर । जीवो की करुणा पुकार सुनी जागा उर मे वैराग्य प्रखर।।५।। पशुओ को बन्धन मुक्ति किया कगन विवाह का तोड दिया । राजुल के द्वारे आकर भी स्वर्णिम रथ पीछे मोड लिया ।।६।। रथत्याग चढे गिरनारी पर जा पहुचे सहस्त्राम वन मे । वस्त्राभूषण सब त्याग दिये जिन दीक्षाधारी तनपन मे ।।७।। फिर उग्र तपस्या के द्वारा निश्चय स्वरुप मर्मज्ञ हए । घातिया कर्म चारो नाशे छप्पन दिन मे सर्वज्ञ हुए ।।८।। तीर्थकर प्रकृतिउदय आई सुरहर्षित समवशरण रचकर । प्रभु गधकुटी मे अतरीक्ष आसीन हुए पद्मासन धर ।।९।। ग्यारह गणधर मे थे पहले गणधर वरदत्त महाऋिषिवर । थी मुख्य आर्यिका राजमती श्रोता थे अगणित भव्यप्रवर ।।१०।। दिव्यध्वनि खिरने लगी शाश्वत ओकार घन गर्जन सी । शुभ बारहसभा बनी अनुपम सौदर्यप्रभा मणि कचनसी ।।११।। जगजीवो का उपकारकिया भूलों को शिव पथ बतलाया । निश्चय रत्नत्रय की महिमा का परम मोक्षफलदर्शाया ॥१२॥ कर प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान योगो का पूर्णअभाव किया ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321