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श्री नेमिनाथ जिनपूजन
२५९ घर में तेरे आग लगी है शीघ्र बुझा अब तो मतिमद ।
विषय कषायों की ज्वाला में अब तो जलना करदे बद ।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद पकज की करता है पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥१॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मिथ्यात्वमल विनाशनाय जल नि । सम्यक श्रद्धा का पावन चन्दन भव ताप मिटाता है । क्रोध कषाय नष्ट होती है निज की अरुचि हटाता है ।। नेमि ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय क्रोधकषाय विनाशनाय बदन नि । भाव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढाता है । वस्तु स्वभाव जान जाता तो मान कषाय मिटाता है ।। नेमि ॥३।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मानकषाय विनाशनाय अक्षत नि । चेतन छल से परभावो का माया जाल बिछाता है । भव भव की माया कषाय को समकित पुष्प मिटाता है ।।नेमि ॥४॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेंद्राय मायाकषाय विनाशनाय पुष्प नि । तृष्णा की ज्वाला से लोभी नहीं सुख पाता है । सम्यक चरु से लोभ नाशकर यह शुचिमय हो जाता है निमि ।।५।। ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेद्राय लोभकषाय विनाशनाय नैवेद्य नि । अन्धकार अज्ञान जगत मे भव भव भ्रमण कराता है। समकित दीप प्रकाशित हो तो ज्ञाननेत्र खुल जाता है ।।नेमि ।।६।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । पर विभाव परिणति मे फसकर निज काधुआ उडाता है । निज स्वरुप की गध मिले तो पर की गध जलाता है ।। नेमि ।।७।।
ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेद्राय विभाव परिणति विनाशनाय धूप नि । निज स्वभाव फल पाकर चेतन महामोक्ष फल पाता है । चहुगति के बधन कटते हैं सिद्ध स्वपद पा जाता है ।। नेमि ॥८॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय महा महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ से लाभ न कुछ हो पाता । जब तक निज स्वभाव मे चेतन मग्न नहीं हो जाता । नेमि. ॥९॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेद्राय अनये पद प्राप्ताय अयं नि ।