Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 281
________________ श्री पार्श्वनाथजिन पूजन २६५ ध्यान अवस्था की सीमा में आते ही होता आनन्द । रागातीत ध्यान होते ही होती सभी कषायें मद ।। ॐ ही चैत्रकृष्ण चतुर्थी दिवज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन बने अयोगी हे भगवान । अन्तिम शुक्ल ध्यानधर सम्मेदाचल से पाया पदनिर्वाण ॥ कूट सूवर्णभद्र पर इन्द्रादिक ने किया मोक्ष कल्याण । जय जय पाश्र्व जिनेश्वरप्रभु परमेश्वर जयजय दयानिधान ।।५।। ॐ ह्री श्री श्रावणशुक्ल सप्तम्या मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । जयमाला तेईसवे तीर्थंकर प्रभु परम ब्रह्ममय परम प्रधान । प्राप्त महा कल्याणपचक पाश्र्वनाथ प्रणतेश्वर प्राण ।।१।। वाराणसी नगर अति सुन्दर शिवसेन नृप परम उदार । ब्राह्मी देवी के घर जन्मे जग मे छाया हर्ष अपारा।२।। मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी बाल ब्रह्मचारी त्रिभुवान । अल्प आयु मे दीक्षाधर कर पच महाव्रत धरे महान ॥३॥ चार मास छास्थ पौन रह वीतराग अरहन्त हुए । आत्म ध्यान के द्वारा प्रभु सर्वज्ञ देव भगवन्त हुए।।४।। बैरी कमठ जीव ने तुमको नौ भव तक दुख पहुँचाया । इस भव मे भी सवर सुर हो महा विध्न करने आया ।।५।। किया अग्निमय घोर उपद्रव भीषण झझावात चला ।। जल प्लावित हो गई धरा पर ध्यान आपका नहीं हिला ।।६।। यक्षी पद्मावती यक्ष धरणेन्द्र विध्न हरने आये । पूर्व जन्म के उपकारो से हो कृतज्ञ तत्क्षण आये ।।७।। प्रभु उपसर्ग निवारण के हित शुभ परिणाम ह्रदय छाये । फण मण्डप अरु सिंहासन रच जय जय जयप्रभु गुणगाये ।।८।। देव आपने साम्य भाव धर निज स्वरूप को प्रगटाया ।

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