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श्री नमिनाथ जिनपूजन धर्मात्मा को जग में अपना केवल शुद्धातम प्रिय है ।
निज स्वभाव ही उपादेय है और सभी कुछ अप्रिय है ।। गिरि सम्मेदशिखर पर गूजा इन्द्रादिक सुर का जयकार । कूट मित्रधर से पद पाया अविनाशी अनन्त अविकार ।।५।। ॐ ह्री श्री वैशाखकृष्णचतुर्दश्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला इक्कीसवे तीर्थकर नमिनाथ देव हैं आप महान । मतिश्रुत अवधिज्ञान के धारीजन्मे जय जय दयानिधान ।।१।। गृह परिवार राज्य सुख से वैगग्य जगा अतस्तल मे । शुद्ध भावना द्वादश भा सब कुछ त्यागा प्रभु दो पल मे ।।२।। वस्त्राभूषण त्याग आपने पचमुष्टि कचलोच किया । उन केशो को क्षीरोदधि मे सुरपति ने जा क्षेप दिया ॥३॥ नगर वीरपुर दत्तराज नृप ने प्रभु को आहार दिया । प्रभु कर मे पयधारा दे सारा पातक सहार किया ।।४।। ज्ञान मन पर्यय को पाया प्रभु छास्थ रहे नवमास । केवलज्ञान लब्धि को पाया शुक्ल ध्यानधर कियाविकास ।।१५।। दे उपदेश भव्य जीवो को मोक्षमार्ग प्रभु दिख लाया ।। शेष अघाति कर्म भी नाशे सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ।।६।। यह ससार भ्रमण का चक्कर सदासदा है अतिदखदाय ।। अशुभ कर्म परिणामो से ही मिलती है नारक पर्याय ।।७।। किचित शुभ मिश्रित माया परिणामो से होता तिर्यन्च । शुभपरिणामो से सुर होता उसमे भी सुख कही न रच ॥८॥ मिश्र शुभाशुभ परिणामो से होती है मनुष्य पर्याय । शुद्ध आत्म परिणामो से होती है प्रकट सिद्ध पर्याय ॥९॥ मै अपने परिणाम सुधारूँ पच महाव्रत ग्रहण करूँ। उग्रतपस्या सवरमय कर कर्म निर्जरा शीघ्र करूँ ।।१०।। धर्म ध्यान चारो प्रकार का अन्तर मे प्रत्यक्ष धरूँ।। चौसठ ऋद्धि सहजमिल जाती किन्तु न उनका लक्ष्यकरूँ ।।११।।