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जैन पूजाजलि इन्द्रिय सुख दुखमयी जानकर चलो अतीन्द्रिय सुख के देश ।
पूर्ण अतीन्द्रिय शुद्ध आत्मा के भीतर अब करो प्रवेश ।। बुद्धि ऋद्धि अष्टादश होती क्रिया ऋद्धि नव मिल जाती । ऋद्धि विक्रिया ग्यारह होती तीन ऋद्धि बल की आती ॥१२॥ सात ऋद्धिया-तप की मिलती अष्टऋद्धि औषधिहोती । छहरस क्रिद्धि शीघ्र मिल जाती दो अक्षीण क्रिद्धि होती ।।१३।। क्रिद्धि सिद्धियो मे ना अटकू शुक्लध्यानमय ध्यान धरूँ। दोष अठारह रहित बनूँ मै चार घाति अवसान करूँ ।।१४।। पा नव केवल लन्धि रमा प्रभु वीतराग अरहन्त बने । बनू पूर्ण सर्वज्ञ व मै मुक्तिक्त भगवत बनूँ ।।१५।। यही विनय है यही भावना यही लक्षय है अब मेरा । निज सिद्धत्वरुप प्रगटाऊँगा जो है त्रिकाल मेरा ।।१६।।
ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्य नि स्वाहा । उत्पलनील कमल शोभित हैं चरणचिह नमिनाथ ललाम । निज स्वभाव का जो आश्रय लेते वे पाते शिव सुखधाम ।।
इत्याशीर्वाद जाग्यपत्र - ॐ ह्री श्री नपिनाथ जिनेन्द्राय नम ।
श्री नेमिनाथ जिनपूजन जय श्री नेमिनाथ तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी भगवान । हे जिनराज परम उपकारी करूणा सागर दया निधान ।। दिव्यध्वनि के द्वारा हे प्रभु तुमने किया जगतकल्याण । श्री गिरनार शिखर से पाया तुमने सिद्धस्वपद निर्वाण ।। आज तुम्हारे दर्शन करके निज स्वरूप का आया ध्यान । मेरा सिद्ध समान सदा पद यह दृढ निश्चय हुआ महान ।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । समकित जल की धारा से तो मिथ्याभम धुलजाता है। तत्त्वो का श्रद्धान स्वय को शाश्वत मगल दाता है ।।