Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 278
________________ २६२ जैन पूजाजलि आकिंचन्य दृष्टि होते ही, सुख का सागर लहराता, सब धर्मों का सहज समन्वय, यहाँ पूर्णा है हो जाता । । कर उर्ध्वगमन सिद्धत्व प्राप्तकर सिद्धलोक आवास लिया ।।१३।। गिरनार शैल से मुक्त हुए तन के परमाणु उडे सारे । पावन मगल निर्वाण हुआ सुरगण के गूजे जयकारे ।।१४।। नख केश शेष थे देवो ने माया मय तन निर्वाण किया । फिर अग्निकुमार सुरोने आकर मुकुटानल से तन भस्म किया ।।१५।। पावनभस्मी का निज-निज के मस्तकपर सबनेतिलक किया । मगल वाद्यो की ध्वनि गूजी निर्वाणमहोत्सव पूर्णकिया ।।१६।। कर्मों के बधन टूट गये पूर्णत्व प्राप्त कर सुखी हुए । हम तो अनादि से हे स्वामी भवदुख बधन से दुखीहुए ।।१७।। ऐसा अन्तरबल दो स्वामी हम भी सिद्धत्व प्राप्तकरले । तुम पदचिहो पर चल प्रभुवर शुभ-अशुभ विभावो को हर ले ।।१८।। परिणाम शुद्ध का अर्चनकर हम अन्तरध्यानी बन जावे । घातिया चार कर्मों को हर हम केवलज्ञानी बन जावे ॥१९॥ शाश्वत शिवपद पाने स्वामी हम पास तुम्हारे आजाये । अपने स्वभाव के साधन से हम तीनलोक पर जयपाये ।।२०।। निज सिद्धस्वपद पाने को प्रभुहर्षित चरणो मे आयाहूँ । वसु द्रव्य सजाकर नेमीश्वर प्रभु पूर्ण अर्घ मै लाया हूँ ।।२१।। ॐ डी श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय॑ नि स्वाहा । शख चिह चरणो मे शोभित जयजय नेमि जिनेश महान । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते सिद्ध समान ।। इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम श्री पार्श्वनाथजिन पूजन तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरणो मे करूँ नमन । अश्वसेन के राजदुलारे वामादेवी के नन्दन ।। बाल ब्रहाचारी भवतारी योगीश्वर जिनवर वन्दन ।

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