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श्री कुन्थुनाथ जिन पूजन आत्म द्रव्य तो है त्रिकाल अधिकारी गुण अनत का पिंड ।
स्वय सिद्ध है वस्तु शाश्वत प्रभुता से सम्पन्न अखड ।। सप्तदशम् तीर्थकर जिन तेरहवे कामदेव गुणवान । पूर्वजाति स्मरण हुआ इक दिन, वैराग्य हुआ तत्काल ॥३॥ राज्यपाट तज गए सहेतुक वन मे जिन दीक्षा धारी । पच मुष्टि कचलोच किया प्रभु हुए महाव्रत के धारी ।।४।। सोलह वर्ष रहे छास्थ कि राग द्वष को दूर किया । क्षपक श्रेणी चढ कर्मघातिया चारो को चकचूर किया ।।५।। भाव शुभाशुभ नाश हेतु प्रभु निज स्वभाव मे लीन हए । पाप पुण्य आश्रव विनाशकर स्वयसिद्ध स्वाधीन हुए।।६।। गणधर थे पैतीस आपके मुख्य स्वयभू गणधर थे । मुख्य आर्यिका श्रीभाविता, श्रोता सुर नर मुनिवर थे ।।७।। वीतराग सर्वज्ञदेव अरहत हुए केवल ज्ञानी । सादि अनन्त सिद्ध पद पाया कर अघातिया की हानी।।८।। नाथ आपके पद पकज मे मनवच काया सहित प्रणाम । भक्तिभाव से यही विनय है सुनो जिनेश्वर हे गुणधाम ।।९।। सम्यक दर्शन को धारण कर श्रावक के व्रत ग्रहण करूँ। पच पाप को एक देश तज चार कषाये मन्द करूँ।।१०।। पच विषय से रागभाव तज पच प्रमाद अभाव करूँ।। ग्यारह प्रतिमाएँ पालन कर पच महाव्रत भाव धरूँ।।११।। मनवचकाय त्रियोग सवा तीन गुप्तियो को पालूँ ।। बाह्यान्तर निर्गन्थ दिगम्बर मुनिषन द्वादश व्रत पानू ॥१२॥ पचाचार समिति पाचो हो तेरह विधि चारित्र धरूँ। दश धर्मों का निरतिचार पालन कर स्वय स्वरूप वरूँ।।१३।। छठे सातवे गुणस्थान मे झूलूँ श्रेणी क्षपक चहूँ । चार घातिया को विनष्टकर मोक्षभवन की ओर बहूँ ।।१४।। इस प्रकार निज पद को पाऊ यही भावना है स्वामी । पूर्ण करो मेरी अभिलाषा कुन्थुनाथ त्रिभुवननामी ।।१५।।