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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजन
२५१ आत्म सस्थित होना ही है मानव जीवन का उद्देश्य ।
अनुसंधाता बनो सत्य के उसके भीतर करो प्रवेश ।। ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेद्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । अब आत्ममय नैवेद्य पावन शुद्ध अन्तर मे धरूँ । यह क्षुधाव्याधि अभाव करके स्वप अजरामर वरूँ मैं मुनि ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोगाशनाय नैवेद्य नि । अब आत्म दीपक ज्योति झिलमिल शुद्धअन्तर मे धरूँ। मिथ्यात्वमोह अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ। में मुनि ।।६।। ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय मोहाधार विनाशनाय दीप नि । अब आत्म धूप अनूप अविकल शुद्ध अन्तर मे धरूँ। घनघाति कर्म अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ ।। मैं मुनि ॥७॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निजआत्म की अनुभूति का फल शुद्ध अन्तर मे धरूं। सर्वोत्कृष्ट सुमोक्षफल ले स्वपद अजरामर वरूँ ।। मैं मुनि ॥८॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तय फल नि । वमु गुणमयी शुद्धात्मा का अर्घ अन्तर मे धरूँ। सब परविभाव अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ मैं मुनि ॥९॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक आनत स्वर्ग त्यागकर आए माता सोमा के उर मे । श्रावण कृष्णा दूज हुआ गर्मोत्सव मगल घर घर मे ।। छप्पन देवी माता की सेवा करती अत पुर मे । सुव्रतनाथ प्रभु बजी बधाई मधुर राजगृह के पुर मे ॥१॥ ॐ ह्री श्री श्रावण कृष्ण द्वितीयाया गर्भमगल प्राप्ताय श्री मुनिसव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अयं नि
शुभ वैशाख कृष्ण दशमी को जन्ममहोत्सव हआ महान । नृपति सुमित्र हर्ष से पुलकित देते है मुह मागा दान ।। सुरपति प्रभु को शीश विराजित कर पाडकवन ले जाते । सुव्रतनाथ अभिषेक क्षीरसागर जल से कर हर्षाते ॥२॥