Book Title: Jain Punjanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya
Publisher: Rupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala

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Page 262
________________ २४६ जैन पूजाजलि भोगों को परिसीमित करने अनासक्ति के भाव जगा । वीतरागता का फल पाने को विराग के बीज उगा ।। मीन चिन्ह शोभित चरण अरहनाथ उरघार। मन वच तन जो पूजते हो जाते भव पार।। इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्री श्री अरहनाथ तीर्थकरेभ्यो नम श्री मल्लिनाथ जिनपूजन मल्लिनाथ के चरण कमल को नित प्रति बारम्बार प्रणाम । बालब्रहाचारी योगीश्वर महामगलात्मक गुणधाम ।। अष्टकर्म विध्वसक मिथ्यातिमिर विनाशक प्रभु निष्काम । महाध्यानपति शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध वीतरागी अभिराम । आज आपकी पूजन करके रो रागादिक परिणाम । ज्ञानावरणादि कर्मों की सतति को नारों अविराम ।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवोषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । परम पारिणामिक भावो का जल पवित्र कब पाआ । जन्म मरण दुख का विनाशकर वीत दोष बन जागा ।। ॐ ह्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । परम पारिणामिक भावो का शिवचन्दन कब पाआ । इस समारतापको क्षयकर वीतक्षोभ बन जागा ।। मल्लिनाथ ।।२।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । परम पारिणामिक भावो के निज अक्षत कब पाआ । भवसमुद्र से पार उतरकर वीतद्वेष बन जागा ।। मल्लिनाथ ।।३।। ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । परम पारिणामिक भावो के नव प्रसून कब पागा । महाशीलकी सुरभि प्राप्तकर वीतकाम बनजाऊँगा ।।मल्लिनाथ ।।४।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेंद्राय काम बाण विध्वसनाय पुष्प नि । परम पारिणामिक भावो के उत्तम चकब पाङा । क्षधा रोग सपूर्णा नाशकर वीतलोभ बन जाग ।।मल्लिनाथा।५।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेद्राय क्षुधा विनाशनाय नैवेद्य नि ।

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