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श्री मल्लिनाथ जिनपूजन
२४७ साम्यभाव रस की धारा से अतर को प्रक्षालित कर ।
तम को हर ज्योतिर्मय बन अमरत्व शक्ति संचालित कर ।। परम पारिणामिक भावों की ज्ञान ज्योति कब पाऊँगा । स्वपर प्रकाशक ज्ञान प्राप्तकर वीत मोह बनजागा मल्लिनाथ ॥६॥ ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । परम पारिणामिक भावो की शुद्ध धूप कब पाऊँगा । अष्टकर्म अरि का विनाशकर वीत कर्म बन जागा मल्लिनाथ ॥७॥ ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । परम पारिणामिक भावो का उत्तम फल कब पागा । महामोक्ष फल प्राप्त करूँगा वीतराग बन जाआ मल्लिनाथ ।।८।। ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेंद्राय महा मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि । परम परिणामिक भावो का विमल अर्घ्य कब पाऊँगा । निज अनर्थ्य पदवी को पाकर स्वय सिद्धबन जाग मल्लिनाथ ॥९॥ ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेद्राय अनर्घपद प्राप्ताय अयं ।
श्री पचकल्याणक मिथलापुरी नगर के राजा कुम्भराज भूपति गुणधाम । रानी प्रभावती माता ने देखे सोलह स्वप्न ललाम ।। चैत्र शुक्ल एकम को त्याग अपराजित स्वर्ग विमान । मल्लिनाथ आगमन जान सुर रत्नवृष्टि करते नित आन॥१॥ ॐ ह्री चैत्रशुक्ल प्रतिपदाया गर्भमगलप्राप्ताय श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । मगसिर शक्ला एकादशमी कुम्भराज नृप धन्य हुए । जिनके आगन मे सुर सुरपति इन्द्राणी के नृत्य हुए ।। जन्मोत्सव के मगल उत्सव गिरि सुमेरु पर धन्य हुए । जय जय मल्लिनाथ जिन स्वामी पूजन कर सब धन्य हुए।।२।।
ॐ ह्री मगसिर शुक्लएकादश्या जन्ममगल प्राप्ताय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । एकादशी शुक्ल पगसिर के दिन उरमे वैराग्य जगा । जग का वैभव भोग नाशमय क्षण भगुर निस्सार लगा ॥