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श्री अरनाथ जिनपूजन हानि लाप यश अपयश दुख सुख में समता का गीत सुहाए ।
राग द्वेष से विमुख बने तो नर पर्याय सफल हो जाए । सोलह वर्ष रहे छदमस्थ और फिर पाया केवलज्ञान । दिव्यध्वनि द्वारा जग के जीवो का किया परम कल्याण।३।। गणधर थे प्रभु तीस मुख्य जिनमे थे श्री कुन्थु गणधर । प्रमुख आर्यिका श्री कुन्थुसेना थी समवशरण सुन्दरा।४।। मैं भी प्रभु उपदेश आपका निज अन्तर मे ग्रहण करूँ। तत्त्व प्रतीति जगे मन मेरे आत्मरुप चितवन करूँ।५।। अनन्तानुबन्धी अभाव कर दर्शन मोह अभाव करूँ। . चौथे गुणस्थान को पाऊँ समकित अगीकार करूँ।।६।। अप्रत्याख्यानावरणी हर एकदेश व्रत ग्रहण करूँ। पचम गुणस्थान को पाकर विशुद्धि की वृद्धि "कलें।७।। प्रत्याख्यानावरण विनाशु मैं मुनिपद को स्वीकार करूँ। छठा सातवाँ गुणस्थान पा पच महाव्रत को धारूँ।८।। अष्टम गुणस्थान श्रेणीचढ शुक्ल ध्यानमय ध्यान धरूं । तीव्र निर्जरा द्वारा मै प्रभु घातिकर्म अवसान करूँ ।।९।। करु सज्वलन का अभाव चारित्र मोह का नाश करूँ। यथाख्यात चारित्र प्राप्तकर निज कैवल्य प्रकाश करूँ ।।१०।। हो सयोग केवली अनन्त चतुष्टय का वैभव पाऊँ। लोकालोक ज्ञान मे झलके निज सर्वज्ञ स्वपद पाऊँ ।।११।। हो अयोग केवली प्रकृति पच्चीसी का भी नाश करूँ। उर्ध्वलोक मे गमन करूँ निज सिद्धस्वरुप प्रकाश करूँ ॥१२।। सादि अनत स्वपद को पाकर सिद्धालय मे वास करूँ। इसप्रकार क्रमक्रम से अपना मोक्षस्वरुप विकास करूँ।१३।। जिस प्रकार अरनाथ देव तुम तीन लोक के भूप हुए । निज स्वभाव के साधन द्वारा मुक्ति भूप चिट्ठप हुए।१४।। उस प्रकार मैं भी अपना पुरुषार्थ जगाऊँ वह बल दो । रत्नत्रय पथ पर आ जाऊँ इस पूजन का यह फल हो ॥१५॥ ॐ ही श्री अरनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय नि स्वाहा ।