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जैन पूजाजलि नैसर्गिक अधिकार जीव का पूर्ण निराकुल सुख की प्राप्ति ।
एक शुद्ध चैतन्य ज्ञान धन सुख सागर में दुख की नास्ति ।। तरु अशोक के निकट महाव्रत धारण कर दीक्षाधारी । पचमुष्टि कचलोच किया प्रभु मल्लिनाथ कीबलिहारी ॥३॥ ॐ ह्री श्री मगसिरशुक्ला एकादशम्या तपोमंगल प्राप्ताय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि छह दिन ही छहमस्थ रहे प्रभु, आत्मध्यान मे हो तल्लीन । कर्मघाति चारो को क्षयकर पाया केवलज्ञान प्रवीण ।। समवशरण मे पौष कृष्ण द्वितीया को शुभ उपदेश दिया । मल्लिनाथ तीर्थंकर प्रभु ने मोक्ष मार्ग सदेश दिया ॥४॥ ॐ ह्री श्री पौषवदी द्वितीया ज्ञानमगल प्राप्ताय अयं श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि । फाल्गुन शुक्ल पचमी को अपरान्ह समय पाया निर्वाण । सबलकूट शिखर सम्मेदाचल से हुए सिद्ध भगवान ।। महामोक्ष कल्याण महोत्सव इन्द्रादिक ने किया महान । जयजय मल्लिजिनेश्वर सिद्धपति चहुदिशि मे गूजा जयगान ।।५।। ॐ ह्री श्री फागुन शुक्ल पचमीदिने मोक्षमगल प्राप्ताय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला महाकारुणिक महागुणाकर महाशिष्ट मोहारि जयी । मल्लिनाथ मुनि ज्येष्ठ मुक्ति प्रियमुक्ति प्ररूपक मृत्युजयी ॥१॥ तुम कुमार वय मे दीक्षा घर वीतराग भगवान हुए । शत इन्द्रो से वन्दनीक प्रभु केवलज्ञान निधान हुए।।२।। अट्ठाईस हुए गणधर प्रभु मुख्य हुए विशाख गणधर । मुख्यार्यिका बधुसेना थी, श्रोता सार्वभौम नृपवर ॥३॥ भव्य दिव्य उपदेश आपने दिया सकलजग को तत्काल । जो निजात्म की शरण प्राप्तकरता हो जाता स्वयनिहाल ॥४॥ क्रोधमान दोनो कषाय है द्वेषरूप अतिक्रूर विभाव ।। दोनो का जब क्षय होता है तो होता है द्वेष अभाव।।५।।