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जैन पूजाजलि त व्रतादि में धर्म मान कर करता रहता है शुभ भाव ।
कैसे हो मिथ्यात्व मंद अरु कैसे पाए आत्म स्वभाव । । एक मास तक प्रतिमायोग धार कर शक्ल ध्यान किया । चार घातिया कर्म नाशकर तुमने केवल ज्ञान लिया । चैत्र मास की कृष्ण अमावस्या को शिव सदेश दिया । जय अनन्तजिन भव्यजनो को परम श्रेष्ठ उपदेशदिया ॥४॥ ॐ ही श्री चैत्रकृष्णअमावस्याया मोक्षमगल प्राप्ताय श्री अनन्तनाय जिनेन्द्राय अयं नि
जयमाला चतुर्दशम् तीर्थकर स्वामी पूज्य अनन्तनाथ भगवान। दिव्यध्वनि के द्वारा तुमने किया भव्य जन का कल्याण ॥१॥ थे पचास गणधर जिनमे पहले गणधर थे जय मुनिवर । सर्व श्री थी मुख्य आर्यिका श्रोता भव्य जीव सुर नर ।।२।। चौदह जीवसमास मार्गणा चौदह तुमने बतलाये । चौदह गुणस्थान जीवो के परिणामो के दर्शाये।।३।। बादर सूक्ष्म जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक । दो इन्द्रिय त्रय इन्द्रिय चतुइन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तका ।४।। सज्ञी और असज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तक । ये ही चौदह जीवसमास जीव के जग मे परिचायका ।५।। गति इन्द्रिय कषाय अरु लेश्या वेद योग सयम सम्यक्त्व । काय अहार ज्ञान दर्शन अरु है सज्ञीत्व और भव्यत्व ।।६।। यह चौदह मार्गणा जीव की होती है इनसे पहचान । पचानवे भेद है इनके जीव सदा है सिद्ध समान ।।७।। गति है चार पाच इन्द्रिय छह लेश्याएँ पच्चीस कषाय । वेद तीन सम्यक्त्व भेद छह पन्द्रह योग और षटकाया।८।। दो आहार चार दर्शन हैं, सयम सात अष्ट हैं ज्ञान । दो सज्ञीत्व और है दो भव्यत्व मार्गणा भेद प्रधान।।९।। गुणस्थान मार्गणा व जीवसमास सभी व्यवहार कथन । निश्चय से ये नहीं जीव के इन सबसे अतीत चेतन १०॥