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जैन पूजाजलि आत्म गगन मडल में ज्ञानामृत रस पीते हैं ज्ञानी ।
बहिर्भाव में रहने वाले प्यासे रहते अज्ञानी ।। जय अनन्त प्रभु अष्टकर्म विध्वसक शिवकारी भगवान् । महामोक्षपति परम वीतरागी जग हितकारी भगवान ।। ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् ॐ ही श्रीअनतनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव
वष्ट
मैं अनादि से जन्म मरण की ज्वाला मे जलता आया । सागरजल से बझी न ज्वाला तो में सम्यक जल लाया ।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया । गुण अनन्त पाने को पूजन करने चरणो मे आया ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । भव पीडा के दुष्कर बन्धन से न मुक्त प्रभु हो पाया । भवा ताप की दाह मिटाने मलयागिरि चदन लाया ।।जय ।।२।। ॐ ह्री श्री अनतनाय जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । पर भावो के महाचक्र मे पस कर नित गोता खाया ।। भव समुद्र से पार उतरने निज अखण्ड तदुल लाया ।। जय ।।३।। ॐ ही श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । कामवाण की महा व्याधि से पीडित हो अति दुख पाया । सुदृढ भक्ति नौका मे चढकर शील पुष्प पाने आया । जय ।।४।। ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । विविध भाँति के षटरस व्यजन खाकर तृप्त न हो पाया । क्षुधा रोग से विनिमुक्ति होने नैवेद्य भेट लाया ।।जय ।।५।। ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । पर परिणति के रूप जाल मे पढ निज रूप न लखपाया । मिथ्या भ्रम हर ज्ञान ज्योति पाने को नवलदीप लाया ॥जय ॥६॥ ॐ हीं श्री अनन्तनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । परक तिर्यंच देव नर गति मे भव अनन्त घर पछताया । चहुगति का अभाव करने को निर्मल शुद्ध धूप लाया ।जय ॥७॥