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श्री पंच परमेष्ठी पूजन चक्रवर्ती इन्द्र नारायण नहीं जीवित रहे हैं।
समय जिसका माणसा वे एक ही पल में बड़े हैं । संसार ताप से जल-जल कर मैंने अगणित दुख पाये हैं। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया पर केही गीत समाये हैं। शीतल चन्दन है भेट तुम्हें संसार ताप नाशो स्वामी हे पंच IR॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमष्ठिम्यो ससारताप बिनाशनाय चंदनं नि । दुखमय अथाह भव सागर में मेरी यह नौका भटक रही । शुभ अशुभ भाव की भंवरों में चैतन्य शक्ति निज अटक रही ।। तंदुल हैं धवल तुम्हे अर्पित अक्षयपद प्राप्तकरूं स्वामी हे पंच ॥३॥ ॐही श्री पचपरमेष्ठिम्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । मैं काम व्यथा से घायल हूँ सुखकी न मिली किंचित् छाया । चरणों मे पुष्प चढ़ाता हूँ तुमको पाकर मन हांया ।। मैं काम भाव विध्वंस करें ऐसा दो शीलहृदय स्वामी । हे पंच ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पचपरमेष्ठिभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । मैं क्षुधा रोग से व्याकुल हू चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी तृप्त नहीं हो पाया है।। नैवेद्य समर्पित करता है यह क्षुधारोग मेटो स्वामी । हे पंच. ॥५॥ ॐ ही श्री पचपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । मोहान्ध महाअज्ञानी मैं निज को पर का कर्ता माना । मिथ्यातम के कारण मैने निज आत्म स्वरुप न पहचाना ।। मैं दीप समर्पण करता हूँ मोहान्धकार क्षय हो स्वामी ।हे पंच ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । कमों की ज्वाला धधक रही ससार बढ रहा है प्रतिपल । सवर से आश्रव को रोकू निर्जरा सुरमि महके पल-पल ।। मैं धूप चढ़ाकर अब आठोंकों का हनन करूँ स्वामी । हे पंच. ।।७।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिम्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । निज आत्मतत्व का मनन करु चितवन क निजचेतन का । दो अद्ध, ज्ञान, चरित्र श्रेष्ठ सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का उत्तमफल चरण चढ़ाता हूँ निर्वाण महाफल हो स्वामी । हे पंच.॥४॥