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जैन पूजांजलि ससार महासागर से समकिती पार हो जाता ।
मिथ्यामति सदा भटकता भवसागर में खो जाता ।। जय जय पानाथ तीर्थंकर जय जय जय कल्याणमयी । नित्य निरंजन जनमन रंजन प्रभु अनन्त गुण ज्ञानमयी ॥२॥ राजपाट अतुलित वैभव को तुमने क्षण मे ठुकराया । निज स्वभाव का अवलम्बन ले परम शुद्ध पद को पाया ॥३॥ भव्य जनो को समवशरण में वस्तुतत्त्व विज्ञान दिया । चिदानन्द चैतन्य आत्मा परमात्मा का ज्ञान दिया ।।४।। गणधर एक शतक ग्यारह थे मुख्य वज्रचामर ऋषिवर । प्रमुख रात्रिषेणा सुआर्या श्रोता पशु नर सुर मुनिवर ।।५।। सात तत्त्व छह द्रव्य बताए मोक्ष मार्ग संदेश दिया । तीन लोक के भूले भटके जीवो को उपदेश दिया ।।६।। नि शकादिक अष्ट अग सम्यकदर्शन के बतलाये । अष्ट प्रकार ज्ञान सम्यक बिन मोक्षमार्ग ना मिल पाए ।।७।। तेरह विधि सम्यक चारित का सत्स्वरुप है दिखलाया । रत्नत्रय ही पावन शिव पथ सिद्ध स्वपद को दर्शाया ॥८॥ हे प्रभु यह उपदशे ग्रहण कर मैं जो निजका कल्याण करूँ। निज स्वरुप की सहज प्राप्ति कर पद र्निग्रन्थ महानवरूँ।९।। इष्ट अनिष्ट सयोगो मे मैं कभी न हर्ष विषाद करूँ। साम्यभाव धर उर अन्तप्रभव का वाद विवाद हरूँ॥१०॥ तीन लोक मे सार स्वय के आत्म द्रव्य का भान करूँ। पर पदार्थ की महिमा त्यागू सुखमय भेद विज्ञान करूँ ॥११॥ द्रव्य भाव पूजन करके मैं आत्म चितवन मनन करूँ।। नित्य भावना द्वादश भाऊँ राग द्वेष का हनन करूँ ।।१२।। तुम पूजन से पुण्यसातिशय हो भव-भव तुमको पाऊँ। जब तक मुक्ति स्वपद ना पाऊं तब तक चरणों मे आऊँ ।।१३।। सवर और निर्जरा द्वारा पाप पुण्य सब नाश करूँ। प्रभु नव केवल लब्धि रमा पा आठो कर्म विनाश करूँ ॥१४॥