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जैन पूजांजलि ज्ञान चक्षु को खोल देख तेरा स्वभाव दुख रूप नहीं ।
तान काल में एक समय भी राग भाव सुख रुप नहीं । । साम्य भाव के द्वारा तुमने निज स्वरूप का वरण किया । पच महाव्रत धारण कर प्रभु पर विभाव का हरण किया ॥३॥ पुरी अरिष्ट पुनर्वसु नृप ने विधिपूर्व आहार दिया । प्रभु कर मे पय थारा दे भव सिंधु सेतु निर्माण किया ॥४॥ तीन वर्ष छास्थ मौन रह आत्म ध्यान मे लीन हुए । चार घातिया का विनाशकर केवलज्ञान प्रवीण हुए।।५।। ज्ञानावरणी दर्शनावरणी अन्तराय अरु मोह रहित । दोष अठारह रहित हुए तुम छयालीस गुण से मण्डित ॥६॥ क्षुधा तृषा, रति, खेद, स्वेद, अरु जन्म जरा चिंताविस्मय । राग, द्वषे, मद, मोह, रोग, निन्द्रा, विषाद अरु मरण न भय ।।७।। शुद्ध, बुद्ध अरहन्त अवस्था पाई तुम सर्वज्ञ हए । देव अनन्त चतुष्टय प्रगटा निज मे निज मर्मज्ञ हुए ॥८॥ इक्यासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख कुन्थुज्ञानी गणधर ।। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ धारिणी श्रोता थे नृप सीमधर ।।९।। तुम दर्शन करके हे स्वामी आज मुझे निज भान हुआ । सिद्ध समान सदा पद मेरा अनुपम निर्मल ज्ञान हुआ ।।१०।। भक्ति भाव से पूजा करके यही कामना करता हूँ। राग द्वषे परणति मिट जाये यही भावना करता हूँ ॥११॥ निर्विकल्प आनन्द प्राप्ति की आज ह्रदय मे लगी लगन । सम्यक पूजन फल पाने को तुम चरणो मे हुआ मगन ।।१२।। निज चैतन्य सिह अब जागे मोह कर्म पर जय पाऊँ। निज स्वरूप अवलम्बन द्वारा शाश्वत शीतलता पाऊँ ।।१३।। ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि । कल्पवृक्ष शोभित चरण शीतल जिन उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नम ।