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जैन पूजांजलि कर्म जनित सुख के समूह का जो भी करता है परिहार ।
वही भव्य निष्कर्म अवस्था को पाकर होता भव पार । । दर्श मोह के उदय आत्म परिणाम सदा मिथ्या होता । हैं अतत्त्व श्रद्धान जहा वह पहिल गुणस्थान होता ॥९॥ दुजा है पिथ्यात्व और सम्यक्त्व अपेक्षा अनुदय रूप । समकित नहीं मिथ्यात्व उदय भी नहीं यही सासादनरूप।।१०।। तीजा सम्यक मिथ्या दर्शन मोहोदय से होता है । अनतानुबधी कषाय परिणाम जीव का होता है ॥११॥ चौथादर्शमोह के क्षय, उपशम, क्षमोपशम से होता । सम्यकदर्शन गुण का इसमे प्रादुर्भाव सहज होता ॥१२।। चरित मोह के क्षयोपशम से पचम से दशवाँ तक है । सम्यकचारित गुण को क्रम से वृद्धि रूप छह थानक है ।।१३।। चरितमोह के उपशम से ग्यारहवा गुणस्थान होता । सूक्ष्म लोभ सद्भाव यहाँ अन्तमुहर्त रहना होता ।।१४।। मोहनीय के उदय निमित्त से जिय निश्चित गिर जाता । यदि परिणाम सभाल न पाये तो पहिले तक आ जाता ।।१५।। चरित मोह के क्षय से तो बारहवा क्षीणमोह होता । पूर्ण अभाव कषायो का हो, यथाख्यातचारित होता ।।१६।। केवलज्ञान प्राप्त कर तेरहवा सयोग केलि होता । सम्यकज्ञान प्राप्त हो जाता चारित गुण न पूर्ण होता ।।१७।। योगो के अभाव से चौदहवाँ अयोग केवलि होता । हो जाता चारित्र पूर्ण रत्नत्रय शुद्ध मोक्ष होता ।।१८।। क्षपक श्रेणि चढ अष्टम से जब चौदहवे तक जाता है । गुणस्थान से हो अतीत निज सिद्ध स्वपद पा जाता है ॥१९॥ मोहफ्द मे पडकर मैंने पर परणति मे रमण किया । परद्रव्यो की चिंता में रह चहुगति में परिभ्रमण किया ॥२०॥ निजस्वरूप का ध्यान न आया कभी न निजस्मरण किया । चिदानद चिद्रूप आत्मा का अब तक विस्मरण किया ।।२१।।