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जैन पूजांजलि ज्ञान ज्योति क्रीडा करती है प्रति पल केवलज्ञान से ।
ज्ञान कला विकसित होती है सहज स्वयं के भाव से ।। पचानवे नाथगणधर थे श्री "बलदत्त प्रमुख गणधर । मुख्य आर्यिका “मीनार्या थी श्रोतासुरनर ऋषिमुनिवर ॥३॥ केवलज्ञान प्राप्त कर तुमने आत्मतत्त्व का किया प्रचार । विषय कषायों के कारण जीवों का बढ़ता है संसार ॥४॥ पच विषय स्पर्शन रसना प्राण चक्षु कर्णेन्द्रिय के । इनमे लीन नहीं पा सकता सुख आनन्द अतीन्द्रिय के ॥५॥ क्रोधमान माया लोभादिक चार कषाय मूल जानो । तीव्र मद के भेद जानकर इनकी गति को पहचानों ॥६॥ अनतानुबधी की चउ, अप्रत्यख्यानावरणी चार । प्रत्यख्यानावरणी चारो और सज्वलन की है चार ॥७॥ हास्य, अरति, रति, शोक, जुगुप्सा, भय, स्त्री, पुरुष, नपुसकवेद । नो कषाय मिल हो जाते पच्चीस कषाय बघ के भेद ॥८॥ सम्यकदर्शन होते ही इनका अभाव होता प्रारम्भ । धीरे धीरे क्रमक्रम से इनका मिट जाता है सब दंभ ॥९॥ चोथै गुणस्थान मे जाती अनन्तानुबन्धी की चार । पचम गुणस्थान में जाती अप्रत्यखानावरणी चार ॥१०॥ षष्टम गुणस्थान में जाती प्रत्यख्यानावरणी चार । द्वादश गुणस्थान मे जाती शेष सज्वलन की भी चार ॥११।। नो कषाय भी इनके क्षय से हो जाती हैं स्वय विनाश । सर्व कषायो के अभाव से होता निर्मल आत्म प्रकाश ॥१२।। निष्कषाय जो हो जाता वह वीतराग जिन पद पाता । पूर्ण अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय अविनाशी पद प्रकटाता ॥१३॥ पूजूचरण सुपार्श्वनाथ प्रभु नित्य आपका ध्यान करूँ। विषय कषाय अभाव करूँ मैं मुक्ति वधू अविराम वरूँ॥१४॥ ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि स्वाहा ।