________________
१६४
जैन पूजांजलि शदात्मा में प्रवृत्ति का एक मार्ग है निज चिन्तन ।
दुश्चिन्ताओ से निवृत्ति का एक मार्ग है निज चिन्तन । । ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प दीप, नैवेद्य, धूप, फल लाया हूँ। अब तक के सचित कमों का मैं पुज जलाने आया हूँ ॥ यह अर्थ समर्पित करता हूँ अविचल अनर्घपद दो स्वामी हे पच. ।।९।। ॐ ही श्री पचपरमेष्ठिभ्यो अनय पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो निज ध्यान लीन गुणमय अपार । अष्टादश दोष रहित जिनवर अरहत देव को नमस्कार ॥१॥ अविचल अविकारी अविनाशी निज रूप निरजन निराकार । जय अजर अमर हे मुक्तिक्त भगवन्त सिद्ध को नमस्कार।।२।। छत्तीस सुगुण से तुम मण्डित निश्चय रत्नत्रय ह्रदय धार । हे मुक्ति वधू के अनुरागी आचार्य सुगुरु को नमस्कार ।।३।। एकादश अग पूर्व चौदह के पाठी गुण पच्चीस धार । बाह्यान्तर मुनि मुद्रा महान श्री उपाध्याय को नमस्कार ।।४।। व्रत समिति गुप्ति चारित्र धर्म वैराग्य भावना हृदय धार । हे द्रव्य भाव सयममय मुनिवर सर्वसाधु को नमस्कार ॥५॥ बहुपुण्य सयोग मिला नरतन जिनश्चत जिनदेव चरणदर्शन । हो सम्यकदर्शन प्राप्त मुझे तो सफल बने मानव जीवन ।।६।। निज पर का भेद जानकर मै निज को ही निज मे लीन करूँ।
अब भेद ज्ञान के द्वारा मै निज आत्म स्वय स्वाधीन करूँ।।७।। निज मे रत्नत्रय धारण कर निज परिणति को ही पहचानें। पर परणति से हो विमुख सदा निजज्ञान तत्व को हीजा ८॥ जब ज्ञान ज्ञेयज्ञाता विकल्प तज शुक्ल ध्यान मैं ध्याआ । तब चार घातिया क्षय करके अरहंत महापद पाऊँगा ॥९॥ है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा हे प्रभु कब इसको पाऊँगा । सम्यक पूजा फल पाने को अब निजस्वभाव मे आमा ॥१०॥