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जैन पूजांजलि निज स्वपाव का साधन लेकर लो शुक्षात्म शरण ।
गुण अनतपति बनो सिद्धयति करके मुक्ति वरण ।। मुझको भी रत्नत्रय निधि दो में कों का भार हरूँ। क्षीणमोह जितराग जितेन्द्रिय हो भव सागर पार करूँ॥१३॥ सदा-सदा नवदेव शरण पा मैं अपना कल्याण करूँ। जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊं हे प्रभु पूजन ध्यान करूँ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिखआचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेवेभ्यो अनर्षपद प्राप्साय पूर्णायं नि स्वाहा
मगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान । भाव पूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान ।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र -ॐ ह्री श्री नव जिनदेवेभ्यो नम
श्री वर्तमानचौबीसतीर्थकर पूजन भरतक्षेत्र की वर्तमान जिन चौबीसी को करूं नमन । वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर के पद पकज मे वन्दन ।। भक्ति भाव से नमस्कार कर विनय सहित करता पूजन । भव सागर से पार करो प्रभु यही प्रार्थना है भगवान ।। ॐ ही श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विशति जिनसमूह अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ, ठ ठ, अत्रमम् सनिहितो भव-भव वषट् । आत्मज्ञान वैभव के जल से यह भव तृषा बुझाऊँगा । जन्मजरा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ।। वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारूँगा । पर द्रव्यो से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारूँगा ॥१॥ ॐ ही श्री वृषभादि वीरातेभ्योजन्मजरा मृत्यु विनाशनायजल नि स्वाहा। आत्मज्ञान वैभव के चन्दन से भवताप नशाऊँगा । भव बाधा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ।। वृष ।।२।। ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरातेभ्यो ससारताप विनाशनाय चदनं नि. ।